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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
तिङन्वयोक्ति :
न्यायाचार्य यशोविजयजी उपाध्याय ने 'तिङन्वयोक्ति' नामक व्याकरणसंबंधी ग्रंथ की रचना की है। कई विद्वान् इसको 'तिङन्तान्वयोक्ति' भी कहते हैं । इस कृति का आदि पद्य इस प्रकार है :
ऐन्द्रजाभ्यर्चितपादपद्मं
सुमेरुधीरं प्रणिपत्य वीरम् । वदामि नैयायिकशाब्दिकानां मनोविनोदाय तिङन्वयोक्तिम् ।।
हेमधातुपारायण :
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने 'हैम - धातुपारायण' नामक ग्रंथ की रचना की है। 'धातुपाठ' शब्दशास्त्र का अत्यन्त उपयोगी अंग है इसीलिये यह ग्रंथ 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' के परिशिष्ट के रूप में बनाया गया है ।
'धातु' क्रिया का वाचक है, अर्थात् क्रिया के अर्थ को धारण करनेवाला 'धातु' कहा जाता है। इन धातुओं से ही शब्दों की उत्पत्ति हुई है ऐसा माना जाता है । इन धातुओं का निरूपण करनेवाला यह 'धातुपारायण' नामक ग्रंथ है । 'सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासन' में निम्न वर्गों में धातुओं का वर्गीकरण किया गया है :
भ्वादि, अदादि, दिवादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि, क्रयादि और चुरादि - इस प्रकार नव गण हैं। अतः इसे 'नवगणी' भी कहते हैं ।
इन गणों के सूचक अनुबंध भ्वादि गण का कोई अनुबंध नहीं है । दूसरे गणों के क्रमशः क्, च्, ट्, त्, प्, य्, शू और ण् अनुबंधों का निर्देश है । फिर इसमें स्वरान्त और व्यञ्जनांत शैली से धातुओं का क्रम दिया गया है। इसमें परस्मैपद, आत्मनेपद और उभयपद के अनुबंध इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ए, ऐ, ओ, औ, ग्, ङ् और अनुस्वार बताये गये हैं ।
इकार अनुबंध से आत्मनेपद, ई अनुबंध से उभयपद का निर्देश है । 'वेट' धातुओं का सूचक अनुबन्ध औ है और 'अनिट्' धातुओं को बताने के लिये अनुस्वार का उपयोग किया गया है। इस प्रकार अनुबंधों के साथ धातुओं के अर्थ का निर्देश किया गया है ।
इस ग्रंथ में कौशिक, द्रमिल, कण्व, भगवद्गीता, माघ, कालिदास आदि ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का उल्लेख भी किया गया है ।
इसमें कई अवतरण पद्य में हैं, बाकी विभाग गद्य में है। कई अवतरण (पद्य) शृंगारिक भी हैं ।
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