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व्याकरण
सही बताकर सिद्धि की गई है । इससे कातंत्रविभ्रम, सारस्वतविभ्रम, हेमविभ्रम इन नामों से अलग-अलग रचनाएँ मिलती हैं ।
आचार्य गुणचन्द्रसूरि द्वारा इन २१ कारिकाओं पर रची हुई 'हेमविभ्रमटीका' का नाम है 'तत्त्वप्रकाशिका' । 'सि० श०' व्याकरण के अभ्यासियों के लिये यह ग्रंथ अति उपयोगी है ।
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इस 'हेमविभ्रम-टीका " के रचयिता आचार्य गुणचंद्रसूरि वादी आचार्य देवसूरि के शिष्य थे | ग्रंथ के अंत में वे इस प्रकार उल्लेख करते हैं :
'अकारि गुणचन्द्रेण वृत्तिः स्व-परहेतवे । देवसूरिक्रमाम्भोजचञ्चरीकेण सर्वदा ॥'
संभवतः ये गुणचन्द्रसूरि वे ही हो सकते हैं जिन्होंने आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य रामचन्द्रसूरि के साथ 'द्रव्यालंकार - टिप्पन' और 'नाट्यदर्पण' की रचना की है।
कविकल्पद्रुम :
तपागच्छीय कुलचरणगणि के शिष्य हर्षकुलगणि ने 'सि० श०' में निर्दिष्ट धातुओं की पद्यबद्ध विचारात्मक रचना वि० सं० १५७७ में की है ।
बोपदेव के 'कविकल्पद्रुम' के समान यह भी पद्यात्मक रचना है । ११ पल्लवों में यह ग्रंथ विभक्त है । प्रथम पल्लव में सब धातुओं के अनुबंध दिये हैं और 'सि० श०' के कई सूत्र भी इसमें जोड़ दिये गये हैं । पल्लव २ से १० में क्रमशः भ्वादि से लेकर चुरादि तक नव गण और ११ वें पल्लव में सौत्रादि धातुओं का विचार किया है ।
'कविकल्पद्रुम' की रचना हेमविमलसूरि के काल में हुई है । उस पर 'धातुचिन्तामणि' नाम की स्वोपज्ञ टीका है; परंतु समग्र टीका उपलब्ध नहीं हुई है। सिर्फ ११ वें लव की टीका मूल पद्यों के साथ छपी है
कविकल्पद्रुम टीका :
किसी अज्ञातकर्तृक 'कविकल्पद्रुम' नाम की कृति पर मुनि विजयविमल ने टीका रची है।
१. यह ग्रंथ भावनगर की यशोविजय ग्रंथमाला से छपा है ।
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