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जैन साहित्य का बृहद् इतिहाल
स्यादिशब्दसमुच्चय :
वायडगच्छीय जिनदत्तसूरि के शिष्य और गूर्जरनरेश विशलदेव राजा की राजसभा के सम्मान्य महाकवि आचार्य अमरचन्द्रसूरि ने १३ वीं शताब्दी में 'स्यादिशब्दसमुच्चय' की मूल कारिकाओं पर वृत्तिस्वरूप 'सि० श०' के सूत्रों से नाम के विभक्ति रूपों की साधनिका की है। यह ग्रन्थ 'सि० श०' के अध्येताओं के लिए बड़ा उपयोगी है । '
स्यादिव्याकरण :
'स्यादिशब्दसमुच्चय' की मूल कारिकाओं पर उपकेशगच्छीय उपाध्याय मतिसागर के शिष्य विनयभूषण ने 'स्यादिशब्दसमुच्चय' को ध्यान में रखकर ४२२५ श्लोक टीका की भावडारगच्छीय सोमदेव मुनि के लिये रचना की है । इसमें चार उल्लास हैं । इसकी ९२ पत्रों की हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में है । उसकी पुष्पिका में इस ग्रंथ की रचना और कारण के विषय में इस प्रकार उल्लेख है :
इति श्रीमदुपकेशगच्छे महोपाध्याय श्रीमतिसागर शिष्याणुना विनयभूषन श्रीमदमरयुक्त्या सविस्तरं प्ररूपितः । संख्याशब्दोल्लासस्तुर्यः ॥
श्रीभावडार गच्छेऽस्ति सोमदेवाभिधो मुनिः । तदभ्यर्थनतः स्यादिर्विनयेन निर्मिता ॥
संवत् १५३६ वर्षे ज्येष्ठ सुदि पञ्चम्यां लिखितेयम् ।
स्यादिशब्ददीपिका
'स्यादिशब्दसमुच्चय' की मूल कारिकाओं पर आचार्य जयानन्दसूरि ने १०५० श्लोक - परिमाण 'अवचूरि' रची है उसका 'दीपिका' नाम दिया है। इसमें शब्दों की प्रक्रिया 'सि० शर' के अनुसार दी गई है । शब्दों के रूप 'सि० श०' के सूत्रों के आधार पर सिद्ध किये गये हैं ।
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हेमविभ्रम-टीका :
मूल ग्रंथ २१ कारिकाओं में है । कारिकाओं की रचना किसने की यह ज्ञात नहीं; परंतु व्याकरण से उपलक्षित कई भ्रमात्मक प्रयोग सूचित किये गये हैं । उन कारिकाओं पर भिन्न-भिन्न व्याकरण के सूत्रों से उन भ्रमात्मक प्रयोगों को
१. भावनगर की यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से यह ग्रंथ छप गया है ।
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