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व्याकरण
३५.
डी० सूचीपत्र में इस वृत्ति के कर्ता आचार्य हेमचन्द्रसूरि बताये गये हैं: जबकि दूसरे स्थल में इसी का 'परिभाषावृत्ति' के नाम से दुर्गसिंह की कृति के रूप में उल्लेख हुआ है। क्रियारत्नसमुच्चय :
तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि के सहाध्यायी आचार्य गुणरत्नमूरि ने वि० सं० १४६६ में 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' के धातुओं के दशगण और सन्नन्तादि प्रक्रिया के रूपों की साधनिका तत्तत् सूत्रों के निर्देशपूर्वक की है। सौत्र धातुओं के सब रूपाख्यानों को विस्तार से समझा दिया है | किस काल का किम प्रसंग में प्रयोग करना चाहिये उसका बोध कराया है। कर्ता को जहाँ कहीं कटिन स्थलविशेष मालूम पड़ा वहीं उन्होंने तत्कालीन गुजराती भापा से समझाने का प्रयत्न किया है। अंत में ६६ श्लोकों की विस्तृत प्रशस्ति दी है। उसमें रचनासंवत्, प्रेरक, कर्ता का नाम, अपनी लघुता, ग्रन्थों का परिमाण निम्नोक्त प्रकार से दिया है :
काले षड्-रस-पूर्व (१४६६) वत्सरमिते श्रीविक्रमार्काद् गते, गुर्वादेश विमृश्य च सदा स्वान्योपकारं परम् । ग्रन्थं श्रीगुणरत्नसूरिरतनोत् प्रज्ञाविहीनोऽप्यमुं, निहेतुप्रकृतिप्रधानजननैः शोध्यस्त्वयं धीधनैः ।। ६३ ।। प्रत्यक्षरं गणनया ग्रन्थमानं विनिश्चितम् ।
षट्पश्चाशतान्येकषष्टयाऽ(५६६१)धिकान्यनुष्टुभाम् ॥६४ ।। न्यायसंग्रह (न्यायार्थमञ्जूषा-टीका):
'सि० श०' के सातवें अध्याय की 'बृहद्वृत्ति' के अन्त में ५७ न्यायों का संग्रह है । उसपर हेमचन्द्र सूरि की कोई व्याख्या हो ऐसा प्रतीत नहीं होता ।
ये ५७ न्याय और अन्य ८४ न्यायों का संग्रह करके तपागच्छीय रत्नशेखरसूरि के शिग्य चारित्ररत्नगणि के शिष्य हेमहंसगणि ने उनपर 'न्यायार्थमजूषा' नाम की टीका की रचना वि० सं० १५१६ में की है। इसमें इन्होंने कहा है कि उपर्युक्त ५७ न्यायों पर प्रज्ञापना नाम की वृत्ति थी ।
५७ और दूसरे ८४ मिलाकर १४१ न्यायों के संग्रह को हेमहंसगणि ने 'न्यायसंग्रहसूत्र' नाम दिया है। दोनों न्यायों की वृत्ति का नाम न्यायार्थमंजूषा है।
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