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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैनेन्द्रन्यास, जैनेन्द्रभाष्य और शब्दावतारन्यास :
देवनन्दि या पूज्यपाद ने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर स्वोपज्ञ न्यास और 'पाणिनीय व्याकरण' पर 'शब्दावतार' न्यास की रचना की है, ऐसा शिमोगा जिला के नगर तहसील के ४६ वे शिलालेख से ज्ञात होता है । इस शिलालेख में इन दोनों न्यास-ग्रन्थों के उल्लेख का पद्यांश इस प्रकार है :
'न्यासं 'जैनेन्द्र'संज्ञं सकलबुधनतं पाणिनीयस्य भूयो, न्यासं 'शब्दावतारं' मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ।'
श्रुतकीर्ति ने 'जैनेन्द्रव्याकरण' की 'पंचवस्तु' नामक टीका में भाष्योऽथ शय्यातलम्'-व्याकरणरूप महल में भाष्य शय्यातल है—ऐसा उल्लेख किया है। इसके आधार पर 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर 'स्वोपज्ञ भाष्य' होने का भी अनुमान किया जाता है लेकिन यह भाष्य या उपर्युक्त दोनों न्यासों में से कोई भी न्यास प्राप्त नहीं हुआ है। महावृत्ति (जैनेन्द्रव्याकरण-वृत्ति):
अभयनंदि नामक दिगम्बर जैन मुनि ने देवनन्दि के असली सूत्रपाठ पर १२००० श्लोक-परिमाण टीका रची है, जो उपलब्ध टीकाओं में सबसे प्राचीन है । इनका समय विक्रम की ८-९वीं शताब्दी है। ___'पंचवस्तु' टीका के कर्ता श्रुतकीर्ति ने इस वृत्ति को 'जैनेन्द्रव्याकरण' रूप महल के किवाड़ की उपमा दी है। वास्तव में इस वृत्ति के आधर पर दूसरी टोकाओं का निर्माण हुआ है। यह वृत्ति व्याकरणसूत्रों के अर्थ को विशद शैली में स्फुट करने में उपयोगी बन पाई है।
अभयनन्दि ने अपनी गुरु-परंपरा या ग्रंथ-रचना का समय नहीं दिया है तथापि वे ८-९ वीं शताब्दी में हुए हैं ऐसा माना जाता है। डॉ० बेल्वेलकर ने अभयनंदि का समय सन् ७५० बताया है, परन्तु यह ठीक नहीं है । अभयनंदि के अन्य ग्रन्थों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। शब्दाम्भोजभास्करन्यास :
दिगंबराचार्य प्रभाचंद्र (वि० ११ वीं शती) ने 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर 'शब्दाम्भोजभास्कर' नाम से न्यास-ग्रन्थ की रचना लगभग १६००० श्लोक-परिमाण १. यह वृत्ति भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुई है। २. 'सिस्टम्स ऑफ ग्रामर' पैरा ५०.
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