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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पिछले जैन ग्रन्थकारा ने तो 'जैनेन्द्रव्याकरण' को ही 'ऐन्द्र' व्याकरण के तौरपर बताने का प्रयत्न किया है । वस्तुतः 'ऐन्द्र' और 'जैनेन्द्र' – ये दोनों व्याकरण भिन्न-भिन्न थे । जैनेन्द्र से अति प्राचीन अनेक उल्लेख 'ऐन्द्रव्याकरण' के सम्बन्ध में प्राप्त होते हैं :
दुर्गाचार्य ने 'निरुक्त- वृत्ति' पृ० १० के प्रारम्भ में 'इन्द्र-व्याकरण' का सूत्र इस प्रकार बताया है : 'शास्त्रेष्वपि 'अथ वर्णसमूहः' इति ऐन्द्र
व्याकरणस्य ।'
जैन ' शाकटायन - व्याकरण' ( सूत्र - १ २ ३७ ) में 'इन्द्र-व्याकरण' का मत प्रदर्शित किया है ।
'चरक' के व्याख्याता भट्टारक हरिश्चन्द्र ने 'इन्द्र - व्याकरण' का निर्देश इस प्रकार किया है : 'शास्त्रेष्वपि 'अथ वर्णसमूहः' इति ऐन्द्र-व्याकरणस्य ।'
दिगम्बराचार्य सोमदेवसूरि ने अपने 'यशस्तिलकचम्पू' ( आश्वास १, पृ० ९० ) में 'इन्द्र - व्याकरण' का उल्लेख किया है ।
'ऐन्द्र-व्याकरण' की रचना ईसा पूर्व ५९० में हुई होगी ऐसा विद्वानों का मत है । परन्तु यह व्याकरण आज तक उपलब्ध नहीं हुआ है 1
शब्दप्राभृत ( सहपाहुड ) :
जैन आगमों का १२ वाँ अंग 'दृष्टिवाद' के नाम से था, जो अब उपलब्ध नहीं है । इस अंग में १४ पूर्व संनिविष्ट थे । प्रत्येक पूर्व का 'वस्तु' और वस्तु का अवांतर विभाग 'प्राभृत' नाम से कहा जाता था । 'आवश्यक - चूर्णि', 'अनुयोगद्वार - चूर्णि' ( पत्र, ४७ ), सिद्धसेनगणिकृत 'तत्त्वार्थसूत्र- -भाष्य टीका' ( पृ० ५० ) और मलधारी हेमचन्द्रसूरिकृत 'अनुयोगद्वारसूत्र - टीका' ( पत्र, १५० ) में 'शब्दप्राभृत' का उल्लेख मिलता है ।
सिद्धसेनगणि ने कहा है कि "पूर्वों में जो 'शब्दप्राभृत' है, उसमें से व्याकरण का उद्भव हुआ है।”
'शब्दप्राभृत' लुप्त हो गया है । वह किस भाषा में था यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। ऐसा माना जाता है कि चौदह पूर्व संस्कृत भाषा में
१.
विनयविजय उपाध्याय ( सं० १९९६ ) और लक्ष्मीवल्लभ मुनि ( १८ वीं शताब्दी ) ने जैनेन्द्र को ही भगवत्प्रणीत बताया है ।
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