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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास व्याकरणों की रचना प्राचीन काल से होती रही है फिर भी व्याकरण-तंत्र की प्रणालि की वैज्ञानिक एवं नियमबद्ध रीति से नींव डालनेवाले महर्षि पाणिनि ( ई० पूर्व ५०० से ४०० के बीच ) माने जाते हैं । यद्यपि ये अपने पूर्वज वैयाकरणों का सादर उल्लेख करते हैं परन्तु उन वैयाकरणों का प्रयत्न न व्यवस्थित था और न श्रृंखलाबद्ध ही । ऐसी स्थिति में यह मानना पड़ेगा कि पाणिनि ने अष्टाध्यायी जैसे छोटे-से सूत्रबद्ध ग्रंथ में संस्कृत भाषा का सार - निचोड़ लेकर भाषा का ऐसा बांध निर्मित किया कि उन सूत्रों के अलावा सिद्ध प्रयोगों को अपभ्रष्ट करार दिये गए और उनके बाद होनेवाले वैयाकरणों को सिर्फ उनका अनुसरण ही करना पड़ा। उनके बाद वररुचि ( ई० पूर्व ४०० से ३०० के बीच ), पतञ्जलि, चन्द्रगोमिन् आदि अनेक वैयाकरण हुए, जिन्होंने व्याकरण- शास्त्र का विस्तार, स्पष्टीकरण, सरलता, लघुता आदि उद्देश्यों को लेकर अपनी नई-नई रचनाओं द्वारा विचार उपस्थित किए । प्रस्तुत प्रकरण में केवल जैन वैयाकरण और उनके ग्रन्थों के विषय में संक्षिप्त जानकारी कराई जाएगी । 8 ऐतिहासिक विवेचन से ऐसा जान पड़ता है कि जब ब्राह्मणों ने शास्त्रों पर अपना सर्वस्व अधिकार जमा लिया तब जैन विद्वानों को व्याकरण आदि विषय के अपने नये ग्रन्थ बनाने की प्रेरणा मिली जिससे इस व्याकरण विषय पर जैनाचार्यों के स्वतंत्र और टीकात्मक ग्रन्थ आज हमें शताधिक मात्रा में सुलभ हो रहे हैं । जिन वैयाकरणों की छोटी-बड़ी रचनाएँ जैन भंडारों में अभी तक अज्ञातावस्था में पड़ी हैं वे इस गिनती में नहीं हैं । कई आचार्यों के ग्रन्थों का नामोल्लेख मिलता है परन्तु वे कृतियाँ उपलब्ध नहीं होतीं । जैसे क्षपणकरचित व्याकरण, उसकी वृत्ति और न्यास, 1 वादीकृत 'विश्रान्तविद्याधर-न्यास', पूज्यपादरचित 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर अपना स्वोपज्ञ 'न्यास' और 'पाणिनीय व्याकरण' पर ' शब्दावतार - न्यास', भद्रेश्वररचित 'दीपकव्याकरण' आदि अद्यापि उपलब्ध नहीं हुए हैं। उन वैयाकरणों ने न केवल जैनरचित व्याकरण आदि ग्रन्थों पर ही टीका-टिप्पण लिखे अपितु जैनेतर विद्वानों के व्याकरण आदि ग्रन्थों का समादर करते हुए टीका, व्याख्या, विवरण आदि निर्माण करने की उदारता दिखाई है, तभी तो वे ग्रन्थकार जैनेतर विद्वानों के साथ ही साथ भारत के साहित्य- प्रांगण में अपनी प्रतिभा से गौरवपूर्ण आसन जमाये हुए हैं। उन्होंने सैंकड़ों ग्रन्थों का निर्माण करके जैनविद्या का मुख उज्ज्वल बनाने की कोशिश की है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002098
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, & Grammar
File Size12 MB
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