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________________ पहला प्रकरण व्याकरण व्याकरण की व्याख्या करते हुए किसी ने इस प्रकार कहा है : "प्रकृति-प्रत्ययोपाधि-निपातादि विभागशः । यदन्वाख्यानकरणं शास्त्रं व्याकरणं विदुः ॥" अर्थात् प्रकृति और प्रत्ययों के विभाग द्वारा पदों का अन्वाख्यान-स्पष्टीकरण करनेवाला शास्त्र 'व्याकरण' कहलाता है । व्याकरण द्वारा शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट की जाती है। व्याकरण के सूत्र संज्ञा. विधि, निषेध, नियम, अतिदेश एवं अधिकार—इन छः विभागो में विभक्त हैं। प्रत्येक सूत्र के पदच्छेद, विभक्ति, समास, अर्थ, उदाहरण और सिद्धि--ये छः अंग होते हैं। संक्षेप में कहें तो भाषा-विकृति को रोककर भाषा के गठन का बोध करानेवाला शास्त्र व्याकरण है। वैयाकरणों ने व्याकरण के विस्तार और दुष्करता का ध्यान दिलाते हुए व्याकरण का अध्ययन करने की प्रेरणा इस प्रकार दी है : "अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रं, स्वल्पं तथाऽऽयुर्बहवश्च विघ्नाः । सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु, हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥" अर्थात व्याकरण-शास्त्र का अन्त नहीं है, आयु स्वल्प है और बहुत से विघ्न हैं, इसलिये जैसे हंस पानी मिले हुए दूध में से सिर्फ दूध ही ग्रहण करता है, उसी प्रकार निरर्थक विस्तार को छोड़कर साररूप (व्याकरण ) को ग्रहण करना चाहिये। यद्यपि व्याकरण के विस्तार और गहराई में न पड़े तथापि भाषा प्रयोगों में अनर्थ न हो और अपने विचार लौकिक और सामयिक शब्दों द्वारा दूसरों को स्फुट और सुचारु रूप से समझा सके इसलिये व्याकरण का ज्ञान नितान्त आवश्यक है । व्याकरण से ही तो ज्ञान मूर्तरूप बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002098
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, & Grammar
File Size12 MB
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