________________
इक्कीसवाँ प्रकरण अर्थशास्त्र
संघदासगणि-रचित 'वसुदेवहिंडी' के साथ जुड़ी हुई 'धम्मिलहिंडी' में 'भगवद्गीता', 'पोरागम' ( पाकशास्त्र) और 'अर्थशास्त्र' - इन तीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का उल्लेख है । 'अत्थसत्थे य भणियं' ऐसा कहकर 'विलेसेण मायाए सत्थेण य इंतव्वो अप्पणी विवद्रुमाणो सत्तु त्ति' ( पृ० ४५ ) ( अर्थशास्त्र में कहा गया है कि विशेषतः अपने बढ़ते हुए शत्रु का कपट द्वारा तथा शस्त्र से नाश करना चाहिये ।) यह उल्लेख किया गया है ।
ऐसा दूसरा उल्लेख द्रोणाचार्यरचित 'ओघनियुक्तिवृत्ति' में है । 'चाणक्कए विभणियं' ऐसा कह कर 'जड़ काइयं न वोसिरह तो अदोसो त्ति' (पत्र १५२ आ) ( यदि मल-मूत्र का त्याग नहीं करता है तो दोष नहीं है ।) यह उल्लेख किया गया है ।
तीसरा उल्लेख है पादलिताचार्य की 'तरंगवतीकथा' के आधार पर रची गई नेमिचन्द्रगणिकृत 'तरंगलोला' में । उसमें अत्थसत्थ - अर्थशास्त्र के विषय में निम्नलिखित निर्देश है:
तो भइ अत्थसत्थम्मि वण्णियं सुयणु ! दूतीपरिभव दूती न होइ कज्जस्त एतो हु मन्तभेओ दूतीओ होज्ज महिला सुंश्वरहस्सा रहस्सकाले आभरणवेलायां नीणंति अवि य घेघति चिंता । मंतभेओ गमणविधाओ
न
होज्ज
अविव्वाणी ॥
इन तीन उल्लेखों से यह सूचित होता है कि प्राचीन युग में प्राकृत भाषा में रचा हुआ कोई अर्थशास्त्र था ।
Jain Education International
सत्ययारेहिं । सिद्धकरी ॥ कामनेमुक्का । संठाइ ॥
|
निशीथ चूर्णिकार जिनदासगणि ने अपनी 'चूर्णि' में भाष्यगाथाओं के अनुसार संक्षेप में 'धूर्ताख्यान' दिया है और आख्यान के अन्त में 'सेसं धुत्तक्खाण
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org