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आयुर्वेद
सारसंग्रह :
यह ग्रन्थ 'अकलंकसंहिता' नाम से प्रकाशित हुआ है । ग्रंथ का प्रारम्भ इस प्रकार है :
नमः
श्री वर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । कल्याणकारको ग्रन्थः पूज्यपादेन भाषितः ||
सर्वं लोकोपकारार्थं कथ्यते सारसंग्रहः ॥ श्रीमद् वाग्भट सुश्रुतादिविमल श्रीवैद्यशास्त्रार्णवे, भास्वत्........सुसार संग्रह महावामान्विते संग्रहे । मन्त्ररुपलभ्य सद्विजयगोपाध्यायसन्निर्मिते, प्रन्थेऽस्मिन् मधुपाकसारनिचये पूर्णं भवेन्मङ्गलम् ॥ ग्रंथगत इन पद्यों से तो इसका नाम 'सारसंग्रह' प्रतीत होता है ।
इसमें पृष्ठ १ से ५ तक समंतभद्र के रस-संबंधी कई पद्य, ६ से ३२ तक पूज्यपादोक्त रस, चूर्ण, गुटिका आदि कई उपयोगी प्रयोग और ३३ से गोम्मटदेव के 'मेरुदण्ड' सम्बन्धी ग्रन्थ की नाडीपरीक्षा और ज्वरनिदान आदि कई भाग हैं । भिन्न-भिन्न प्रकरणों में सुश्रुत, वाग्भट, हरीतमुनि, रुद्रदेव आदि वैद्याचार्यों के मतों का संग्रह भी है । '
निबन्ध :
मंत्री धनराज के पुत्र सिंह द्वारा वि० सं० १५२८ की मार्गशीर्ष कृष्णा ५ के दिन वैद्यकग्रन्थ की रचना करने का विधान श्री अगरचंदजी नाहटा ने किया है। श्री नाहटाजी को इस ग्रंथ के अंतिम दो पत्र मिले हैं। उन पत्रों में १०९९ से ११२३ तक के पद्य हैं। अंतिम चार पद्यों में प्रशस्ति है । प्रशस्ति में इस ग्रंथ को 'निबंध' कहा है । प्रस्तुत प्रति १७ वीं शताब्दी में लिखी गई है ।
१. यह ग्रन्थ धारा के जैन सिद्धांतभवन से प्रकाशित हुआ है ।
२.
वसु-कर-शर- चन्द्रे (१५२८) वत्सरे राम-नन्दज्वलन - शशि (१३९३) मिते च श्रीश के मासि मार्गे ।. असित कतिथौ वा पञ्चमी.. ..केऽर्के गुरुमशुभदिनेऽसौ .. ३. देखिए – जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १९, पृ. ११.
॥११२२ ॥
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४. यावन्मेरौ कनकं तिष्ठतु तावन्निबन्धोऽयम् ॥ ११२३ ॥
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