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सुग्रीवादिमुनीन्द्रेः रचितं शास्त्रं यदायसद्भावम् ।
तत् संप्रत्यर्थाभिर्विरच्यते मल्लिषेणेन । इन्होंने भट्ट वोसरि का भी उल्लेख किया है। उन ग्रंथों से सार ग्रहण करके मलिषेण ने १९५ श्लोकों में इस ग्रंथ की रचना की है। यह ग्रंथ २० प्रकरणों में विभक्त है। कर्ता ने इसमें अष्ट-आय-१. ध्वज, २. धूम, ३. सिंह, ४. मण्डल, ५. वृष, ६. खर, ७. गज, ८. वायस-के स्वरूप और फलों का सुंदर विवेचन किया है। आयों की अधिष्ठात्री पुलिन्दिनी देवी का इसमें स्मरण किया गया है।
ग्रंथ के अंत में कर्ता ने कहा है कि इस कृति से भूत, भविष्यं और वर्तमान काल का ज्ञान होता है। अन्य व्यक्ति को विद्या नहीं देने के लिये भी अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया है :
अन्यस्य न दातव्यं मिथ्यादृष्टेस्तु विशेषतः।
शपथं च कारयित्वा जिनवरदेव्याः पुरः सम्यक् ॥ यह ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। आयसद्भाव-टीका:
'आयसद्भाव' पर १६०० श्लोक-प्रमाण अज्ञातकर्तृक टीका की रचना हुई है। यह टीका भी अप्रकाशित है।
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