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निमित्त
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चाहिए और मात्राओं को चौगुना करना चाहिए तथा इनका जो योगफल आए. उसमें सात का भाग देना चाहिए। यदि शेष कुछ रहे तो रोगी अच्छा होगा।' पण्हावागरण (प्रश्नव्याकरण):
'पण्हावागरण' नामक दसवें अंग आगम से भिन्न इस नाम का एक ग्रंथ निमित्तविषयक है, जो प्राकृतभाषा में गाथाबद्ध है। इसमें ४५० गाथाएँ हैं। इसकी ताड़-पत्रीय प्रति पाटन के ग्रंथभंडार में है। उसके अंत में 'लीलावती' नामक टीका भी (प्राकृत में ) है।
इस ग्रन्थ में निमित्त के सब अंगों का निरूपण नहीं है। केवल जातकविषयक प्रश्नविद्या का वर्णन किया गया है। प्रश्नकर्ता के प्रश्न के अक्षरों से ही फलादेश बता दिया जाता है । इसमें समस्त पदार्थों को जीव, धातु और मूलइन तीन भेदों में विभाजित किया गया है तथा प्रश्नों द्वारा निर्णय करने के लिये अवर्ग, कवर्ग आदि नामों से पांच वर्गों में नौ-नौ अक्षरों के समूहों में बाँटा गया है। इससे यह विद्या वर्गकेवली के नाम से कही जाती है। चूडामणिशास्त्र में भी यही पद्धति है।
इस ग्रंथ पर तीन अन्य टीकाओं के होने का उल्लेख मिलता है : १. चूड़ामणि, २. दर्शनज्योति जो लीबडी-भंडार में है और ३. एक टीका जैसलमेरभंडार में विद्यमान है।
यह ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। साणरुय (श्वानरुत):
'साणरुय' नामक ग्रंथ के कर्ता का नाम अज्ञात है परंतु मंगलाचरण में ,नमिऊण जिणेसरं महावीर' उल्लेख होने से किसी जैनाचार्य की रचना होने का निश्चय होता है। इसमें दो प्रकरण हैं : गमनागमन-प्रकरण (२० गाथाओं में) और जीवित-मरणप्रकरण ( १० गाथाओं में ) । इस ग्रंथ में कुत्ते की भिन्न-भिन्न आवाजों के आधार से गमन-आगमन, जीवित-मरण इत्यादि बातों का निरूपण किया गया है।
१. यह ग्रंथ डा. ए. एस. गोपाणी द्वारा सम्पादित होकर सिंघी जैन ग्रंथ
माला, बंबई से सन् १९४५ में प्रकाशित हुआ है। २. इसकी हस्तलिखित प्रति पाटन के भंडार में है।
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