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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
रिसमुच्चय (रिष्टसमुच्चय ) :
'रिसमुच्चय' के कर्ता आचार्य दुर्गदेव दिगंबर संप्रदाय के विद्वान् थे । उन्होंने वि० सं० १०८९ ( ईस्वी सन् २०३२ ) में कुम्भनगर ( कुंभेरगढ़, भरतपुर ) में नत्र लक्ष्मीनिवास राजा का राज्य था तब इस ग्रंथ को समाप्त किया था। दुर्गदेव के गुरु का नाम संजमदेव था । उन्होंने प्राचीन आचार्यों की परंपरा से आगत 'मरणकरंडिया' के आधार पर 'रिष्टसमुच्चय' में रिष्टों का याने मरण-सूचक अनिष्ट चिह्नों का ऊहापोह किया है । इसमें कुल २६१ गाथाएँ हैं, जो प्रधानतया शौरसेनी प्राकृत में लिखी गई हैं ।
इस ग्रंथ में १. पिंडस्थ, २. पदस्थ और ३. रूपस्थ - ये तीन प्रकार के रिष्ट बताए गए हैं। जिनमें उंगलियां टूटती मालूम पड़ें, नेत्र स्तब्ध हो जायँ, शरीर विवर्ण बन जाय, नेत्रों से सतत जल बहा करे ऐसी क्रियाएँ पिण्डस्थरिष्ट मानी जाती हैं। जिनमें चन्द्र और सूर्य विविध रूपों में दिखाई दें, दीपक - शिखा अनेक रूपों में नजर आए, दिन का रात्रि के समान और रात्रि का दिन के समान आभास हो ऐसी क्रियाएँ पदस्थरिष्ट कही गई हैं। जिसमें अपनी खुद की छाया दिखाई न पड़े वह क्रिया रूपस्थरिष्ट मानी गई है ।
इसके बाद स्वप्नविषयक वर्णन है । स्वप्न के एक देवेन्द्रकथित और दूसरा सहज- ये दो प्रकार माने गये हैं । दुर्गदेव ने 'मरणकंडी' का प्रमाण देते हुए इस प्रकार कहा है :
नहु सुणइ सतं सद्दं दीवयगंधं च णेव गिव्हेइ ।
• जो जियइ सत्तदियहे इय कहिअं मरणकंडीए ।। १३९ ॥
अर्थात् जो अपने शरीर का शब्द नहीं सुनता और जिसे दीपक की गन्ध नहीं आती वह सात दिन तक जीता है, ऐसा 'मरणकंडी' में कहा गया है ।
प्रश्नारिष्ट के १. अंगुली - प्रश्न, २. अलक्तक- प्रश्न, ३. गोरोचना- प्रश्न, ४. प्रश्नाक्षर-प्रश्न, ५. शकुनप्रश्न, ६. अक्षर - प्रश्न, ७. होरा - प्रश्न और ८. ज्ञानप्रश्न- ये आठ भेद बताते हुए इनका विस्तृत वर्णन किया गया है ।
प्रश्नारिष्ट का अर्थ बताते हुए आचार्य ने कहा है कि मंत्रोच्चारण के बाद प्रश्न करनेवाले से प्रश्न करवाना चाहिए, प्रश्न के अक्षरों को दुगुना करना
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