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ज्योतिष
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ग्रहलाघव-टीका :
गणेश नामक विद्वान् ने 'ग्रहलाधव' की रचना की है। वे बहुत बड़े ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम था केशव और माता का नाम था लक्ष्मी। वे समुद्रतटवर्ती नांदगांव के निवासी थे। सोलहवीं शती के उत्तरार्ध में वे विद्यमान थे। __ग्रहलाघव की विशेषता यह है कि इसमें ज्याचाप का संबंध बिलकुल नहीं रखा गया है तथापि स्पष्ट सूर्य लाने में करणग्रंथों से भी यह बहुत सूक्ष्म है । यह ग्रंथ निम्नलिखित १४ अधिकारों में विभक्त है : १. मध्यमाधिकार, २. स्पष्टाधिकार, ३. पञ्चताराधिकार, ४. त्रिप्रश्न, ५. चन्द्रग्रहण, ६. सूर्यग्रहण, ७. मासग्रहण, ८. स्थूलपहसाधन, ९. उदयास्त, १०. छाया, ११. नक्षत्र-छाया, १२. शृंगोन्नति, १३. ग्रहयुति और १४. महापात । सब मिलाकर इसमें १८७ श्लोक हैं।
इस 'ग्रहलाघव' ग्रन्थ पर चारित्रसागर के शिष्य कल्याणसागर के शिष्य यशस्कत्सागर (जसवंतसागर) ने वि० सं० १७६० में टीका रची है।
इस 'ग्रहलाघव' पर राजसोम मुनि ने टिप्पण लिखा है।
मुनि यशस्वत्सागर ने जैनसप्तपदार्थी (सं० १७५७ ), प्रमाणवादार्थ (सं० १७५९), भावसप्ततिका (सं० १७४०), यशोराजपद्धति (सं० १७६२), वादार्थनिरूपण, स्याद्वादमुक्तावली, स्तवनरत्न आदि ग्रंथ रचे हैं। चन्द्रार्की-टीका: - मोढ दिनकर ने 'चन्द्रार्की' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में ३३ श्लोक हैं, सूर्य और चन्द्रमा का स्पष्टीकरण है। अंथ में आरंभ वर्ष शक सं० १५०० है। - इस 'चन्द्रार्की' ग्रन्थ पर तपागच्छीय मुनि कृपाविजयजी ने टीका रची है। षट्पञ्चाशिका-टीका :
प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के पुत्र पृथुयश ने 'षटपञ्चाशिका' की रचना को है। यह जातक का प्रामाणिक ग्रंथ गिना जाता है। इसमें ५६ श्लोक हैं। इस 'षटपञ्चाशिका' पर भट्ट उत्पल की टीका है।
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