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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दीक्षा-प्रतिष्ठाशुद्धि :
उपाध्याय समयसुन्दर ने 'दीक्षा-प्रतिष्ठाशुद्धि' नामक ज्योतिषविषयक ग्रन्थ' की वि० सं० १६८५ में रचना की है।
यह ग्रन्थ १२ अध्यायों में विभाजित है : १. ग्रहगोचरशुद्धि, २. वर्षशुद्धि, ३. अयनशुद्धि, ४. मासशुद्धि, ५. पक्षशुद्धि, ६. दिनशुद्धि, ७. वारशुद्धि, .८. नक्षत्रशुद्धि, ९. योगशुद्धि, १०. करणशुद्धि, ११. लग्नशुद्धि और १२. ग्रहशुद्धि।
कर्ता ने प्रशस्ति में कहा है कि वि० सं० १६८५ में लूणकरणसर में प्रशिष्य वाचक जयकीर्ति, जो ज्योतिष-शास्त्र में विचक्षण थे, की सहायता से इस ग्रन्थ की रचना की। प्रशस्ति इस प्रकार है :
दीक्षा-प्रतिष्ठाया या शुद्धिः सा निगदिता हिताय नृणाम् । श्रीलूणकरणसरसि स्मरशर-वसु-षडुडुपति ( १६८५) वर्षे ।। १ ।।
ज्योतिष्शास्त्रविचक्षणवाचकजयकीर्तिसहायैः ।
समयसुन्दरोपाध्यायसंदर्भितो ग्रन्थः ॥२॥ विवाहरत्न:
खरतरगच्छीय आचार्य जिनोदयसूरि ने 'विवाहरत्न' नामक ग्रन्थ की रचना की है।
इस ग्रन्थ में १५० श्लोक हैं, १३ पत्रों की प्रति जैसलमेर में वि० सं० १८३३ में लिखी गई है। ज्योतिप्रकाश
आचार्य ज्ञानभूषण ने 'ज्योतिप्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना वि० सं० १७५५ के बाद कभी की है।
१. इसकी एकमात्र प्रति बीकानेर के खरतरगच्छ के आचार्यशाखा के उपाश्रय
स्थित ज्ञानभंडार में है। २. इसकी हस्तलिखित प्रति मोतीचन्द खजांची के संग्रह में है। ३. इसकी हस्तलिखित प्रति देहली के धर्मपुरा के मन्दिर में संगृहीत है।
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