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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पाण्डवचरित्र और आचार्य उदयप्रभसूरि-रचित 'धर्माभ्युदयकाव्य' का संशोधन 'किया था।
आचार्य नरचन्द्रसूरि के आदेश से मुनि गुणवल्लभ ने वि० सं० १२७१ में 'व्याकरणचतुष्कावचूरि' की रचना की। ज्योतिस्सार-टिप्पण: ___ आचार्य नरचंद्रसूरि-रचित 'ज्योतिस्सार' ग्रन्थ पर सागरचन्द्र मुनि ने १३३५ श्लोक-प्रमाण टिप्पण की रचना की है। खास कर 'ज्योतिस्सार' में दिये हुए यंत्रों का उद्धार और उस पर विवेचन किया है। मंगलाचरण में कहा गया है :
सरस्वती नमस्कृत्य यन्त्रकोद्धारटिप्पणम् । करिष्ये नारचन्द्रस्य मुग्धानां बोधहेतवे ।।
यह टिप्पण अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है।
जन्मसमुद्र:
'जन्मसमुद्र' ग्रंथ के कर्ता नरचन्द्र उपाध्याय हैं, जो कासहृद्गच्छ के उद्योतनसूरि के शिष्य सिंहसूरि के शिष्य थे। उन्होंने वि. सं. १३२३ में इस ग्रंथ की रचना की। आचार्य देवानन्दसूरि को अपने विद्यागुरु के रूप में स्वीकार करते हुए निम्न शब्दों में कृतज्ञताभाव प्रदर्शित किया है :
देवानन्दमुनीश्वरपदपङ्कजसेवकषट्चरणः ।
ज्योतिःशास्त्रमकार्षीद नरचन्द्राख्यो मुनिप्रवरः॥ यह ज्योति -विषयक उपयोगी लाक्षणिक ग्रन्थ है जो निम्नोक्त आठ कल्लोलों में विभक्त है : १. गर्भसंभवादिलक्षण (पद्य ३१), २. जन्मप्रत्ययलक्षण (पद्य २९), ३. रिष्टयोग-तद्भगलक्षण (पद्य १०), ४. निर्वाणलक्षण (पद्य २०), ५. द्रव्योपार्जनराजयोगलक्षण (पद्य २६),६. बालस्वरूपलक्षण (पद्य २०), ७. स्त्रीजातकस्वरूपलक्षण (पद्य १८), ८. नाभसादियोगदीक्षावस्थायुर्योगलक्षण (पद्य २३) । ___ इसमें लग्न और चन्द्रमा से समस्त फलों का विचार किया गया है। जातक का यह अत्यंत उपयोगी ग्रंथ है।' १. यह कृति भभी छपी नहीं है। इसकी ७ पत्रों की हस्तलिखित प्रति का.
द. भा० सं० विद्यामंदिर, अहमदाबाद में है। यह प्रति १६ वीं शताब्दी में लिखी गई है।
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