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ज्योतिष
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कई विद्वान् इस ग्रंथ को भद्रबाहु का नहीं अपितु उनके नाम से अन्य द्वारा रचित मानते हैं । मुनि श्री जिनविजयजी इसे बारहवीं तेरहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं, जबकि पं० श्री कल्याणविजयजी इस ग्रंथ को पद्रहवीं शताब्दी के बाद का मानते हैं । इस मान्यता का कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इसकी भाषा बिलकुल सरल और हल्की कोटि की संस्कृत है । रचना में अनेक प्रकार की विषय-संबंधी तथा छन्दोविषयक अशुद्धियां हैं । इसका निर्माता प्रथम श्रेणी का विद्वान् नहीं था । 'सोरठ' जैसे शब्द प्रयोगों से भी इसका लेखक पन्द्रहवींसोलहवीं शती का ज्ञात होता है। इसके संपादक पं० नेमिचन्द्रजी इसे अनुमानतः अष्टम शताब्दी की कृति बताते हैं । उनका यह अनुमान निराधार है ।
पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इसे सत्रहवीं शती के एक भट्टारक के समय की कृति बताया है, जो ठीक मालूम होता है । "
ज्योतिस्सार :
आचार्य नरचन्द्रसूरि ने 'ज्योतिस्सार' (नारचन्द्र - ज्योतिष् ) नामक ग्रंथ की रचना वि० सं० १२८० में २५७ पद्यों में की है । ये मलधारी गच्छ के आचार्य देवप्रभसूर के शिष्य थे ।
राजादियोग,
इस ग्रन्थ में कर्ता ने निम्नोक्त ४८ विषयों पर प्रकाश डाला है : १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. योग, ५. राशि, ६. चन्द्र, ७. तारकाबल, ८. भद्रा, ९. कुलिक, १०. उपकुलिक, ११. कण्टक, १२. अर्धप्रहर, १३. कालवेला, १४. स्थविर, १५ - १६. शुभ-अशुभ, १७-१९. व्युपकुमार, २०. २१. गण्डान्त, २२. पञ्चक, २३. चन्द्रावस्था, २४. त्रिपुष्कर, २५. यमल, २६. करण, २७. प्रस्थानक्रम, २८. दिशा, २९. नक्षत्रशूल, ३०. कील, ३१. योगिनी, ३२. राहु, ३३. हंस, ३४. रवि, ३५. पाश, ३६. काल, ३७. वत्स, ३८. शुक्रगति, ३९. गमन, ४० स्थाननाम, ४१. विद्या, ४२. क्षौर, ४३. अम्बर, ४४. पात्र, ४५. नष्ट, ४६. रोगविगम, ४७. पैत्रिक, ४८. गेहारम्भ ।
नरचन्द्रसूरि ने चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र, प्राकृतदीपिका, अनर्घराघव-टिप्पण, न्यायकन्दली - टिप्पण और वस्तुपाल - प्रशस्तिरूप (वि० सं० १२८८ का गिरनार के जिनालय का) शिलालेख आदि रचें हैं । इन्होंने अपने गुरु आचार्य देवप्रभसूरि-रचित
१. देखिए - 'निबन्धनिचय' पृ० २९७.
२. यह कृति पं० चमाविजयजी द्वारा संपादित होकर सन् १९३८ में प्रकाशित. हुई है।
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