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गणित
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के प्रसिद्ध गुणरूप समुद्रों में से रत्नसमान, पाषाणों में से कंचनसमान, और शुक्तियों में से मुक्ताफलसमान सार निकाल कर मैंने इस 'गणितसारसंग्रह' की यथामति रचना की है । यह ग्रन्थ लघु होने पर भी अनल्पार्थक है ।
इसमें आठ व्यवहारों का निरूपण इस प्रकार है : १. परिकर्म, २. कलासवर्ण, ३. प्रकीर्णक, ४. त्रैराशिक, ५. मिश्रक, ६. क्षेत्रगणित, ७. खात और
८. छाया ।
प्रथम अध्याय में गणित की विभिन्न इकाइयों व क्रियाओं के नाम, संख्याएँ, ऋणसंख्या और ग्रन्थ की महिमा तथा विषय निरूपित हैं ।
महावीराचार्य ने त्रिभुज और चतुर्भुजसंबंधी गणित का विश्लेषण विशिष्ट रीति से किया है । यह विशेषता अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकती । '
त्रिकोणमिति तथा रेखागणित के मौलिक और व्यावहारिक प्रश्नों से मालूम होता है कि महावीराचार्य गणित में ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के समान हैं । तथापि महावीराचार्य उनसे अधिक पूर्ण और आगे हैं। विस्तार में भी भास्करा - चार्य की लीलावती से यह ग्रन्थ बड़ा है ।
महावीराचार्य ने अंकसंबंधी जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल – इन आठ परिकर्मों का उल्लेख किया है । इन्होंने शून्य और काल्पनिक संख्याओं पर भी विचार किया है । भिन्नों के भाग के विषय में महावीराचार्य की विधि विशेष उल्लेखनीय है ।
लघुतम समापवर्तक के विषय में अनुसंधान करनेवालों में महावीराचार्य. प्रथम गणितज्ञ हैं जिन्होंने लाघवार्थ - निरुद्ध लघुतम समापवर्त्य की कल्पना की । इन्होंने 'निरुद्ध' की परिभाषा करते हुए कहा कि छेदों के महत्तम समापवर्त्तक और उसका भाग देने पर प्राप्त लब्धियों का गुणनफल 'निरुद्ध' कहलाता है । भिन्नों का समच्छेद करने के लिये नियम इस प्रकार है --निरुद्ध को हर से भाग देकर जो लब्धि प्राप्त हो उससे हर और अंश दोनों को गुणा करने से सब भिन्नों का हर एक-सा हो जायगा ।
महावीराचार्य ने समीकरण को व्यावहारिक प्रश्नों द्वारा समझाया है । इन प्रश्नों को दो भागों में विभाजित किया है : एक तो वे प्रश्न जिनमें अज्ञात
1. देखिए, डा० विभूतिभूषण - मेथेमेटिकल सोसायटी बुलेटिन नं० २० में 'ऑन महावीर्स सोल्युशन ऑफ ट्रायेंगल्स एण्ड क्वाड्रीलेटरल' शीर्षक लेख ।
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