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छठा प्रकरण
संगीत
'सम्' और 'गीत' – इन दो शब्दों के मिलने से 'संगीत' पद बनता है । मुख से गाना गीत है । 'सम्' का अर्थ है अच्छा । मिलने से गीत अच्छा बनता है । कहा भी है :
वाद्य और नृत्य दोनों के
गीतं वाद्यं च नृत्यं च त्रयं संगीतमुच्यते ।
संगीतशास्त्र का उपलब्ध आदि ग्रंथ भरत का 'नाट्यशास्त्र' है, जिसमें संगीत-विभाग (अध्याय २८ से ३६ तक) है । उसमें गीत और वाद्यों का पूरा विवरण है किंतु रागों के नाम और उनका विवरण नहीं बताया गया है ।
भरत के शिष्य दत्तिल, कोहल और विशाखिल— इन तीनों ने ग्रन्थों की रचना की थी । प्रथम का दत्तिलम्, दूसरे का कोहलीयम् और तीसरे का विशाखिलम् ग्रन्थ था । विशाखिलम् प्राप्य नहीं है ।
मध्यकाल में हिंदुस्तानी और कर्णाटकी पद्धतियां चलीं। उसके बाद संगीतशास्त्र के ग्रंथ लिखे गये ।
सन् १२०० में सत्र पद्धतियों का मंथन करके शार्ङ्गदेव ने 'संगीतरत्नाकर' नामक ग्रन्थ लिखा । उस पर छः टीका ग्रन्थ भी लिखे गये। इनमें से चार टीका -ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं ।
अर्धमागधी ( प्राकृत ) में रचित 'अनुयोगद्वार' सूत्र में संगीतविषयक सामग्री पद्य में मिलती है। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में संगीत का कोई ग्रन्थ रहा होगा ।
उपर्युक्त जैनेतर ग्रन्थों के आधार पर जैनाचार्यों ने भी अपनी विशेषता दर्शाते हुए कुछ ग्रन्थों की रचना की है ।
संगीत समयसार :
दिगंबर जैन मुनि अभयचन्द्र के शिष्य महादेवार्य और उनके शिष्य पार्श्वचन्द्र ने 'संगीतसमयसार " नामक ग्रन्थ की रचना लगभग वि० सं० १३८०
१. यह ग्रन्थ 'त्रिवेन्द्रम् संस्कृत ग्रंथमाला' में छप गया है ।
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