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छन्द
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अवहट्ट ( अपभ्रंश ) का तिरस्कार करते हुए अपने भाषासम्बन्धी दृष्टिकोण को व्यक्त किया है । पद्य ३२ से ३७ तक गाथा के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों का उल्लेख है। ब्राह्मण में गाथा के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों में गुरुवर्णों का विधान है। क्षत्रिय में पूर्वार्ध में सभी गुरुवर्ण और उत्तरार्ध में सभी लघुवर्ण निर्दिष्ट हैं। वैश्य में इससे उलटा होता है और शूद्र में दोनों पादों में सभी लघुवर्ण आते हैं। , पद्य ३८-३९ में पूर्वोक्त गाथा-भेदों को दुहराया गया है। पद्य ४० से ४४ तक गाथा में प्रयुक्त लघु-गुरुवर्णों की संख्या के अनुसार गाथा के २६ भेदों का कथन है।
पद्य ४५-४६ में लघु-गुरु जानने की रीति, पद्य ४७ में. कुल मात्रासंख्या, पद्य ४८ से ५१ में प्रस्तारसंख्या, पद्य ५२ में अन्य छन्दों की प्रस्तारसंख्या, पद्य ५३ से ६२ तक गाथासम्बन्धी अन्य गणित का विचार है। पद्य ६३ से ६५ में गाथा के ६ भेदों के लक्षण तथा पद्य ६६ से ६९ में उनके उदाहरण दिये गये हैं । पद्य ७२ से ७५ तक गाथाविचार है।
यह ग्रन्थ यहाँ (७५ पद्य तक ) पूर्ण हो जाना चाहिये था। पद्य ३१ में कर्ता के अवहट्ट के प्रति तिरस्कार प्रकट करने पर भी इस ग्रन्थ में पद्य ७६ से ९६ तक अपभ्रंश-छन्दसम्बन्धी विचार दिये गये हैं, इसलिये ये पद्य परवर्ती क्षेपक मालूम पड़ते हैं। प्रो० वेलणकर ने भी यही मत प्रकट किया है।
पद्य ७६-९६ में अपभ्रंश के कुछ छन्दों के लक्षण और उदाहरण इस प्रकार बताये गये हैं : पद्य ७६-७७ में पद्धति, ७८-७९ में मदनावतार या चन्द्रानन, ८०-८१ में द्विपदी, ८२-८३ में वस्तुक या साधंछन्दस् , ८४ से ९४ में दूहा, उसके भेद, उदाहरण और रूपान्तर और ९५-९६ में श्लोक।
गाथा-लक्षण के सभी पद्य नंदिताढ्य के रचे हुए हों ऐसा मालूम नहीं होता। इसका चतुर्थ पद्य 'नाट्यशास्त्र' (अ० २७) में कुछ पाठभेदपूर्वक मिलता है। १५ वां पद्य 'सूयगड' की चूर्णि ( पत्र ३०४ ) में कुछ पाठभेदपूर्वक उपलब्ध होता है। ___इस 'गाथालक्षण' के टीकाकार मुनि रत्नचन्द्र ने सूचित किया है कि ५७ वां पद्य 'रोहिणी-चरित्र' से, ५९ वां और ६० वां पद्य 'पुष्पदन्तचरित्र' से और ६१ वां पद्य 'गाथासहस्रपथालंकार' से लिया गया है।' १. यह ग्रन्थ भांडारकर प्राच्यविद्या संशोधन मंदिर त्रैमासिक, पु० १४, पृ०
1-३८ में प्रो. वेलणकर ने संपादित कर प्रकाशित किया है।
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