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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वृत्तजातिसमुच्चय-वृत्ति
'वृत्तजातिसमुच्चय' पर भट्ट चक्रपाल के पुत्र गोपाल ने वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति में टीकाकार ने कात्यायन, भरत, कंबल और अश्वतर का स्मरण किया है। गाथालक्षण :
'गाहालक्खण' के प्रथम पद्य में ग्रन्थ और उसके कर्ता का उल्लेख है, पद्य ३१ और ६३ में भी ग्रन्थ का 'गाहालक्खण' नाम निर्दिष्ट है। इससे नंदिताढ्य इस प्राकृत 'गाथालक्षण' के निर्माता थे यह स्पष्ट है।
नंदियड्ड (नंदिताढ्य ) कब हुए, यह उनकी अन्य कृतियों और प्रमाणों के अभाव में कहा नहीं जा सकता। संभवतः वे हेमचंद्राचार्य से पूर्व हुए हों। हो सकता है कि वे विरहांक के समकालीन या इनके भी पूर्ववर्ती हों।
नंदियड्ड ने मंगलाचरण में नेमिनाथ को वंदन किया है। पद्य १५ में मुनिपति वीर की, ६८, ६९ में शांतिनाथ की, ७०, ७१ में पार्श्वनाथ की, ५७ में ब्राह्मीलिपि की, ६७ में जैनधर्म की, २१, २२, २५ में जिनवाणी की, २३ में जिनशासन की व ३७ में जिनेश्वर की स्तुति की है। पद्य ६२ में मेरुशिखर पर ३२ इंद्रों ने वीर का जन्माभिषेक किया, यह निर्देश है। इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि वे श्वेतांबर जैन थे।
यह ग्रंथ मुख्यतया गाथाछंद से संबद्ध है, ऐसा इसके नाम से ही प्रकट है। प्राकृत के इस प्राचीनतम गाथाछन्द का जैन तथा बौद्ध आगम-ग्रन्थों में व्यापक रूप से प्रयोग हुआ है। सम्भवतः इसी कारण नन्दिताय ने गाथा-छन्द को एक लक्षण-ग्रन्थ का विषय बनाया।
'गाथा-लक्षण' में ९६ पद्य हैं, जो अधिकांशतः गाथा-निबद्ध हैं। इनमें से ४७ पद्यों में गाथा के विविध भेदों के लक्षण हैं तथा ४९ पद्य उदाहरणों के हैं। पद्य ६ से १६ तक मुख्य गाथाछन्द का विवेचन है। नन्दिताढ्य ने 'शर' शब्द को चतुर्मात्रा के अर्थ में लिया है, जबकि विरहांक ने 'वृत्तजातिसमुच्चय' में इसे पञ्चकल का द्योतक माना है। यह एक विचित्र और असामान्य बात प्रतीत होती है।
पद्य १७ से २० में गाथा के मुख्य भेद पथ्या, विपुला और चपला का वर्णन तथा पद्य २१ से २५ तक इनके उदाहरण हैं। पद्य २६ से ३० में गीति, उद्गीति, उपगीति और संकीर्णगाथा उदाहृत हैं। पद्य ३१ में नन्दिताब्य ने
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