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चौथा प्रकरण
'छन्द' शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' में 'छन्दस्' शब्द वेदों का बोधक है । 'भगवद्गीता' में वेदों को छन्दस् कहा गया है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ (१५.१) 'अमरकोश' (छठी शताब्दी ) में 'अभिप्रायश्छन्द भाशयः' ( ३.२०)'छन्द' का अर्थ 'मन की बात' या 'अभिप्राय' किया गया है । उसी में अन्यत्र ( ३.८८ ) 'छन्द' शब्द का 'वश' अर्थ बताया गया है। उसी में 'छन्दः पर्चभिलाषेच' ( ३.२३२) छन्द का अर्थ 'पद्य' और 'अभिलाप' भी किया गया है।
इससे 'छन्द' शब्द का प्रयोग पद्य के अर्थ में भी अति प्राचीन मालूम पड़ता है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्दस-इन छः वेदांगों में छन्दःशास्त्र को गिनाया गया है।
'छन्द' शब्द का पर्यायवाची 'वृत्त' शब्द है परन्तु यह शब्द छन्द की तरह व्यापक नहीं है। _ 'छन्दःशास्त्र' का अर्थ है अश्वर या मात्राओं के नियम से उद्भूत विविध वृत्तों की शास्त्रीय विचारणा । सामान्यतया हमारे देश में सर्वप्रथम पद्यात्मक कृति की रचना हुई इसलिये प्राचीनतम 'ऋगवेद' आदि के सूक्त छन्द में ही रचित हैं। वैसे जैनों के आगमग्रंथ भी अंशतः छन्द में रचित हैं। जैनाचार्यों ने छन्द-शास्त्र के अनेक ग्रंथ लिखे हैं। उन ग्रन्थों के विषय में यहाँ हम विचार करेंगे। रत्नमञ्जूषा : ___संस्कृत में रचित 'रत्नमञ्जूषा" नामक छन्द-ग्रन्थ के कर्ता का नाम अज्ञात है। इसके प्रत्येक अध्याय के अन्त में टीकाकार ने 'इति ररनमजूषायां छन्दो१ यह ग्रन्थ 'सभाष्य-रत्नमञ्जूषा' नाम से भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से __सन् १९४९ में प्रो. वेलणकर द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हुआ है।
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