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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विदग्धमुखमण्डन- टीका :
खरतरगच्छीय आचार्य जिनसिंहसूरि के शिष्य लब्धिचन्द्र के शिष्य शिवचंद्र ने 'विदग्धमुखमंडन' पर वि. सं. १६६९ में 'सुबोधिका' नामकी टीका रची है। इस टीका का परिमाण २५०४ श्लोक है । टीका के अन्त में कर्ता ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है :
श्रीलब्धिवर्धन मुनेर्विनयी विनेयो विद्यावतां क्रमसरोजपरीष्टिपूतः ।
चक्रे यथामति शुभां शिवचन्द्रनामा
वृत्तिं विदग्धमुखमण्डनकाव्यसत्काम् ॥ १ ॥ नन्द- भूपाल (१६६९) विशालवर्षे हर्षेण वर्षात्ययहर्षदत मेवातिदेशे लवराभिधाने पुरे समारब्धमिदं समासीत् ॥ २ ॥
विदग्धमुखमण्डन-वृत्ति :
खरतरगच्छीय सुमतिकलश के शिष्य मुनि विनयसागर ने वि. सं. १६९९ में 'विदग्धमुखमंडन' पर एक वृत्ति की रचना की है ।
विदग्धमुखमण्डन-वृत्ति :
मुनि विनयसुंदर के शिष्य विनयरत्न ने १७ वीं शताब्दी में 'विदग्धमुखमंडन' पर वृत्ति बनाई है ।
विदग्धमुखमण्डन- टीका :
मुनि भीमविजय ने 'विदग्धमुखमंडन' पर एक टीका की रचना की है । विदग्धमुखमण्डन-अवचूरि :
'विदग्धमुखमंडन' पर किसी अज्ञातनामा मुनि ने 'अवचूरि' की रचना की | अवचूरि का प्रारंभ 'स्मृत्वा जिनेन्द्रमपि' से होता है, इससे स्पष्ट होता है कि यह जैनमुनिकृत अवचूरि है ।
विदग्धमुखमण्डन- टीका :
ककुदाचार्य संतानीय किसी मुनि ने 'विदग्धमुखमंडन' पर एक टीका रची है । श्री अगरचंदजी नाहटा ने भारतीय विद्या, वर्ष २, अंक ३ में 'जैनेतर ग्रंथों पर जैन विद्वानों की टीकाएँ' शीर्षक लेख में इसका उल्लेख किया है ।
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