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अलङ्कार
वृत्ति, १७. लेख लिखनपद्धति, १८. संक्षिप्त कादम्बरीकथानक, १९. काव्यप्रकाश - टीका ।
सरस्वतीकण्ठाभरण वृत्ति ( पदप्रकाश ) :
अनेक ग्रन्थों के निर्माता मालवा के विद्याप्रिय भोजराज ने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' नामक काव्यशास्त्रसंबंधी ग्रंथ का निर्माण वि० सं० ११५० के आसपास में किया है । यह विशालकाय कृति ६४३ कारिकाओं में मोटे तौर से संग्रहात्मक है । इसमें काव्यादर्श, ध्वन्यालोक इत्यादि ग्रन्थों के १५०० पद्य उदाहरणरूप में दिये गये हैं । इसमें पांच परिच्छेद हैं ।
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प्रथम परिच्छेद में काव्य का प्रयोजन, लक्षण और भेद, पद, वाक्य और वाक्यार्थ के सोलह-सोलह दोष तथा शब्द के चौबीस गुण निरूपित हैं ।
द्वितीय परिच्छेद में २४ शब्दालंकारों का वर्णन है ।
तृतीय परिच्छेद में २४ अर्थालंकारों का वर्णन है ।
चतुर्थ परिच्छेद में शब्द और अर्थ के उपमा आदि अलंकारों का निरूपण
है ।
पञ्चम परिच्छेद में रस, भाव, नायक और नायिका, पांच संधियां, चार वृत्तियां वगैरह निरूपित हैं ।
इस 'सरस्वतीकण्ठाभरण' पर भाण्डागारिक पार्श्वचन्द्र के पुत्र आजड ने 'पदप्रकाश' नामक टीका ग्रंथ' की रचना की है । ये आचार्य भद्रेश्वरसूरि को गुरु मानते थे | इन्होंने भद्रेश्वरसूरि को बौद्ध तार्किक दिङ्नाग के समान बताया है । इस टीका ग्रन्थ में प्राकृत भाषा की विशेषता के उदाहरण हैं तथा व्याकरण के नियमों का उल्लेख है ।
विदग्धमुखमण्डन-अवचूर्णि :
बौद्धधर्मी धर्मदास ने वि० सं० १३१० के आसपास में 'विदग्धमुखमंडन' नामक अलंकारशास्त्रसंबंधी कृति चार परिच्छेदों में रची है । इसमें प्रहेलिका और चित्रकाव्यसंबंधी जानकारी भी दी गई है ।
इस ग्रन्थ पर जैनाचायों ने अनेक टीकाएँ रची हैं ।
१४वीं शताब्दी में विद्यमान खरतरगच्छीय आचार्य जिनप्रभसूरि ने 'विदग्धमुखमंडन' पर अवचूर्णि रची है।
में
१. इसकी इस्तलिखित ताडपत्रीय प्रति पाटन के भंडार में खंडित अवस्था विद्यमान है ।
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