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अलङ्कार
कारों के ६२० पद्य उदाहरणरूप में दिये हैं। अपने पूर्व के ग्रंथकार भामह, वामन, अभिनवगुप्त, उद्भट बगैरह के अभिप्रायों का उल्लेख कर अपना भिन्न मत भी प्रदर्शित किया है । मम्मट के बाद में होनेवाले आलंकारिकों ने 'काव्यप्रकाश' का यथेच्छ उपयोग किया है और उस पर अनेक टीकाएँ बनाई हैं, यही उसकी लोकप्रियता का प्रमाण है ।
इस 'काव्यप्रकाश' पर राजगच्छीय आचार्य सागरचंद्र के शिष्य माणिक्यचंद्रसूरि ने संकेत नाम की टीका की रचना की है जो उपलब्ध टीकाओं में काफी प्राचीन है । इन्होंने वि० सं० 'रस-वक्त्र ग्रहाधीश' का उल्लेख किया है, जिसका अर्थ कोई १२१६, कोई १२४६, और कोई १२६६ करते हैं । आचार्य माणिक्यचंद्रसूरि मंत्री वस्तुपाल के समकालीन थे इसलिये वि० सं० १२६६ उपयुक्त जँचता है।
आचार्य माणिक्यचंद्र ने अपने पूर्वकालीन ग्रंथकारों की कृतियों का भी पर्याप्त उपयोग किया है । आचार्य हेमचंद्रसूरि के 'काव्यानुशासन' की स्वोपज्ञ 'अलंकारचूडामणि' और 'विवेक' टीकाओं से भी उपयोगी सामग्री उद्धृत की है।
काव्यप्रकाश - टीका :
तपागच्छीय मुनि हर्षकुल ने 'काव्यप्रकाश' पर एक टीका रची है। मे विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में हुए थे ।
सारदीपिका-वृत्ति :
खरतरगच्छीय आचार्य जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य विनयसमुद्रगणि के शिष्य गुणरत्नगणिने 'काव्यप्रकाश' पर १०००० लोक प्रमाण 'सारदीपिका" नामक टीका की रचना अपने शिष्य रत्नविशाल के लिये की थी ।
काव्यप्रकाश-वृत्ति :
आचार्य जयानन्दसूरि ने 'काव्यप्रकाश' पर एक वृत्ति लिखी है जिसका श्लोक-प्रमाण ४४०० है ।
१. इसकी हस्तलिखित प्रति पूना के भांडारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में है ।
२.
विलोक्य विविधाः टीका अधीत्य च गुरोर्मुखात् ।
काव्यप्रकाशटी केयं
रच्यते
सारदीपिका ॥
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