________________
११६
__ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास
भेद, महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चंपू , मिश्रकाव्य, रूपक के दस भेद और गेय-इस प्रकार विविध विषयों का संग्रह है।
दूसरे अध्याय में पद और वाक्य के दोष, अर्थ के चौदह दोष, दूसरों द्वारा निर्दिष्ट दस गुण, तीन गुणों के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट अभिप्राय और तीन रीतियों के बारे में उल्लेख है ।
तीसरे अध्याय में ६३ अलंकारों का निरूपण है। इसमें अन्य, अपर, आशिष् , उभयन्यास, पिहित, पूर्व, भाव, मत और लेश-इस प्रकार कितने ही विरल अलंकारों का निर्देश है ।
चतुर्थ अध्याय में शब्दालंकार के चित्र, श्लेष, अनुप्रास, वक्रोक्ति, यमक और पुनरुक्तवदाभास-ये भेद और उनके उपभेद बताये गए हैं ।
पञ्चम अध्याय में नव रस, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी, नायक और नायिका के भेद, काम की दस दशाएँ और रस के दोष-इस प्रकार विविध विषयों की चर्चा है ।।
इन सूत्रों पर स्वोपज्ञ 'अलंकारतिलक' नामक वृत्ति की रचना वाग्भट ने की है । इसमें काव्य-वस्तु का स्फुट निरूपण और उदाहरण दिये गए हैं । चन्द्रप्रभकाव्य, नेमिनिर्वाण-काव्य, राजीमती-परित्याग, सीता नामक कवयित्री और अधिमंथन जैसे ( अपभ्रंश) ग्रन्थों के पद्य उदाहरण के रूप में दिये गए हैं। काव्यमीमांसा और काव्यप्रकाश का इसमें खूब उपयोग किया गया है। इसमें 'वाग्भटालंकार' का भी उल्लेख है। विविध देशों, नदियों और वनस्पतियों का उल्लेख तथा मेदपाट, राहडपुर और नलोटकपुर का निर्देश किया गया है । कवि के पिता नेमिकुमार का भी उल्लेख है। इनके दो अन्य ग्रन्थों-छंदोनुशासन और ऋषभचरित-का भी उल्लेख मिलता है।
कवि ने टीका के अन्त में अपनी नम्रता प्रकट की है। वे अपने को द्वितीय वाग्भट बताते हुए लिखते हैं कि राजा राजसिंह दूसरे जयसिंहदेव हैं, तक्षकनगर दूसरा अणहिल्लपुर है और मैं वादिराज दूसरा वाग्भट हूँ ।
१. श्रीमद्भीमनृपालजस्य बलिनः श्रीराजसिंहस्य मे
सेवायामवकाशमाप्य विहिता टीका शिशूनां हिता। हीनाधिक्यवचो यदन्न लिखितं तद् वै बुधैः क्षम्यतां गार्हस्थ्यावनिनाथसेवनधियः कः स्वस्थतामाप्नुयात् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org