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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास ने इनको 'वादिसिंह' की पदवी से विभूषित किया था। ये हजारों शास्त्रों का सार जाननेवाले असाधारण विद्वान् थे । शब्दसंदोहसंग्रह
जैन ग्रंथावली, पृ० ३१३ में 'शब्दसंदोहसंग्रह' नामक कृति की ४७९ पत्रों की ताडपत्रीय प्रति होने का उल्लेख है। शब्दरत्नप्रदीप: __ 'शब्दरत्नप्रदीप' नामक कोशग्रंथ के कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है, परन्तु सुमतिगणि की वि० सं० १२९५ में रची हुई 'गणधरसार्धशतक-वृत्ति' में इस ग्रंथ का नामोल्लेख बार-बार आता है। कल्याणमल्ल नामक किसी विद्वान् ने भी 'शब्दरत्नप्रदीप' नामक ग्रंथ की रचना की है। यदि उक्त ग्रंथ यही हो तो यह ग्रंथ जैनेतरकृत होने से यहाँ नहीं गिनाया जा सकता । विश्वलोचनकोश : __दिगम्बर मुनि धरसेन ने 'विश्वलोचनकोश' अपर नाम 'मुक्तावलीकोश' की संस्कृत में रचना की है। इस अनेकार्थककोश में कुल २४५३ पद्य हैं। इसके रचनाक्रम में स्वर और ककार आदि वर्गों के क्रम से शब्द के आदि का निर्णय किया गया है और द्वितीय वर्ण में भी ककारादि का क्रम रखा गया है। इसमें शब्दों को कान्त से लेकर हान्त तक के ३३ वर्ग, क्षान्त वर्ग और अव्यय वर्गइस प्रकार कुल मिलाकर ३५ वर्गों में विभक्त किया गया है । ___ मुनि धरसेन सेन-वंश में होनेवाले कवि, आन्वीक्षिकी विद्या में निष्णात
और वादी मुनिसेन के शिष्य थे। वे समस्त शास्त्रों के पारगामी, राजाओं के विश्वासपात्र और काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। यह अनेकार्थककोश विविध कवीश्वरों के कोशों को देखकर रचा गया है, ऐसा इसकी प्रशस्ति में कहा गया है।'
इन धरसेन के समय के बारे में कोई प्रमाण नहीं मिलता। यह कोश चौदहवीं शताब्दी में रचा गया, ऐसा अनुमान होता है।
१. खरतरगणपाथोराशिवृद्धौ मृगाङ्का यवनपतिसभायां ख्यापिताहन्मताज्ञाः ।
प्रहतकुमतिदर्पाः पाठकाः साधुकीर्तिप्रवरसदभिधाना वादिसिंहा जयन्तु ।
तेषां शास्त्रसहस्रसारविदुषां.....॥- उक्तिरत्नाकर-प्रशस्ति. २. यह ग्रंथ 'गांधी नाथारंग जैन ग्रंथमाला' में सन् १९१२ में छप चुका है।
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