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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रारंभ में उल्लेख मिलता है । यह कृति उन्होंने अपने गुरु के नाम पर चढ़ा दी, ऐसा दूसरे कांड की टीका के अंतिम पद्य से जाना जाता है । रचना -समय विक्रमीय १३ वीं शताब्दी है ।
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इस ग्रंथ की टीका' लिखने में निम्नलिखित ग्रंथों से सहायता ली गई, ऐसा उल्लेख प्रारंभ में ही है : विश्वप्रकाश, शाश्वत, रभस, अमरसिंह, मंख, हुरंग, व्याडि, धनपाल, भागुरि, वाचस्पति और यादव की कृतियाँ तथा धन्वंतरिकृत निघंटु और लिंगानुशासन |
निघण्टुशेष :
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने 'निघण्टुशेष' नामक वनस्पति- कोश- ग्रन्थ की रचना की है । 'निघण्टु' का अर्थ है वैदिक शब्दों का समूह । वनस्पतियों के नामों के संग्रह को भी 'निघण्टु' कहने की परिपाटी प्राचीन है । धन्वन्तरि-निघण्टु, राजकोश- निघण्टु, सरस्वती निघण्टु, हनुमन्निघण्टु आदि वनस्पति - कोशग्रन्थ प्राचीन काल में प्रचलित थे । 'धन्वन्तरि-निघण्टु' के सिवाय उपर्युक्त कोशग्रन्थ आज दुष्प्राप्य हैं। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के सामने शायद 'धन्वन्तरि निघण्टु' कोश था । अपने कोशग्रन्थ की रचना के विषय में आचार्य ने इस प्रकार लिखा है : विहितैकार्थ- नानार्थ-देश्यशब्द समुच्चयः 1 निघण्टुशेषं वक्ष्येऽहं नत्वाऽर्हत्पदपङ्कजम् ॥
अर्थात् एकार्थककोश ( अभिधानचिन्तामणि ), नानार्थकोश ( अनेकार्थसंग्रह ) और देश्यकोश ( देशीनाममाला ) की रचना करने के पश्चात् अर्हत्तीर्थकर के चरणकमल को नमस्कार करके 'निघण्टुशेष' नामक कोश कहूँगा ।
इस 'निघण्टुशेष' में छः कांड इस प्रकार हैं : १. वृक्षकांड श्लोक १८१, २. गुल्मकांड १०५, ३. लताकांड ४४, ४. शाककांड २४, ५. तृणकांड १७, ६. धान्यकांड १५ – कुल मिलाकर ३९६ श्लोक हैं ।
यह कोशग्रन्थ आयुर्वेदशास्त्र के लिए उपयोगी है ।
'अभिधानचिंतामणि' में इन शब्दों को निबद्ध न करते हुए विद्यार्थियों की अनुकूलता के लिये ये 'निघण्टुशेष' नाम से अलग से संकलित किये गये हैं।
१. यह टीकाग्रंथ मूल के साथ श्री जाचारिया ( बम्बई ) ने सन् १८९३ में सम्पादित किया है ।
२. यह ग्रन्थ सटीक लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से सन् १९६८ में प्रकाशित हुआ है ।
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