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________________ दूसरा प्रकरण कोश कोश भी व्याकरण-शास्त्र की ही भांति भाषा-शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। व्याकरण केवल यौगिक शब्दों की सिद्धि करता है, लेकिन रूढ और योगरूढ शब्दों के लिये तो कोश का ही आश्रय लेना पड़ता है। वैदिक काल से ही कोश का ज्ञान और महत्त्व स्वीकृत है, यह 'निघण्टुकोश' से ज्ञात होता है। वेद के 'निरुक्त'कार यास्क मुनि के सम्मुख 'निघण्टु' के पाँच संग्रह थे। इनमें से प्रथम के तीन संग्रहों में एक अर्थवाले भिन्न-भिन्न शब्दों का संग्रह था । चौथे में कठिन शब्द और पाँचवें में वेद के भिन्न-भिन्न देवताओं का वर्गीकरण था । 'निघण्टु-कोश' बाद में बननेवाले लौकिक शब्द-कोशों से अलग-सा जान पड़ता है। 'निघण्टु' में विशेष रूप से वेद आदि 'संहिता' ग्रंथों के अस्पष्ट अर्थों को समझाने का प्रयत्न किया गया है अर्थात 'निघण्टु-कोश' वैदिक ग्रंथों के विषय की चर्चा से मर्यादित है, जबकि लौकिक कोश विविध वाङ्मय के सब विषयों के नाम, अव्यय और लिंग का बोध कराते हुए शब्दों के अर्थों को समझाने वाला व्यापक शब्दभंडार प्रस्तुत करता है। 'निघण्टु-कोश' के बाद यास्क के 'निरुक्त' में विशिष्ट शब्दों का संग्रह है और उसके बाद पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' में यौगिक शब्दों का विशाल समूह कोश की समृद्धि का विकास करता हुआ जान पड़ता है। पाणिनि के समय तक के सब कोश-ग्रंथ गद्य में प्राप्त होते हैं परंतु बाद के लौकिक कोशों की अनुष्टुप , आर्या आदि छंदों में पद्यमय रचनाएँ प्राप्त होती हैं। __ कोशों में मुख्यतया दो पद्धतियाँ दिखाई पड़ती हैं : एकार्थक कोश और अनेकार्थक कोश । पहला प्रकार एक अर्थ के अनेक शब्दों का सूचन करता है। प्राचीन कोशकारों में कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'संसारावर्त', व्याडि का 'उत्पलिनी', भागुरि का 'त्रिकाण्ड', Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002098
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, & Grammar
File Size12 MB
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