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व्याकरण
सकता है। जो शब्द साध्यमान और सिद्ध संस्कृत हैं उनके विषय में ही इस व्याकरण में प्राकृत के नियम दिये गये हैं।
प्रस्तुत व्याकरण में तीन अध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय के चार-चार पाद हैं। प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय और तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में प्राकृत का विवेचन है । तृतीय अध्याय के द्वितीय पाद में शौरसेनी ( सूत्र १ से २६), मागधी (२७ से ४२ ), पैशाची (४३ से ६३ ) और चूलिका-पैशाची (६४ से ६७.) के नियम बताये गये हैं। तीसरे और चौथे पाद में अपभ्रंश का विवेचन है । अपभ्रंश के उदाहरणों की अपेक्षा से आचार्य हेमचंद्रसूरि से इसमें कुछ मौलिकता दिखाई देती है। प्राकृतशब्दानुशासन-वृत्ति :
त्रिविक्रम ने अपने 'प्राकृतशब्दानुशासन' पर स्वोपज्ञ वृत्ति' की रचना की है । प्राकृत रूपों के विवेचन में इन्होंने आचार्य हेमचन्द्र का आधार लिया है । प्राकृत-पद्यव्याकरण :
प्रस्तुत ग्रन्थ का वास्तविक नाम और कर्ता का नाम अज्ञात है। यह अपूर्ण रूप में उपलब्ध है, जिसमें केवल ४२७ श्लोक हैं। इस ग्रंथ का आरंभ इस प्रकार है:
संस्कृतस्य विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम् । विज्ञेयं प्राकृतं तत् तु [ यद् ] नानावस्थान्तरम् ॥१॥ समानशब्दं विभ्रष्टं देशीगतमिति विधा। सौरसेन्यं च मागध्यं पैशाच्यं चापभ्रंशिकम् ।।२॥ देशीगतं चतुर्धेति तदने कथयिष्यते ।
औदार्यचिन्तामणि :
'औदार्यचिन्तामणि' नामक प्राकृत व्याकरण के कर्ता का नाम है श्रुतसागर । ये दिगंबर जैन मुनि थे जो मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण में हुए । १. जीवराज ग्रंथमाला, सोलापुर से सन् १९५४ में यह ग्रंथ सुसंपादित होकर
प्रकाशित हुमा है। २. इस ग्रंथकी । पत्रों की प्रति महमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय
संस्कृति विद्यामंदिर के संग्रह में है जो लगभग १० वीं शताब्दी में लिखी गई है।
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