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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह 'प्राकृतव्याकृति' आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि-निर्मित महाकाय सप्तभागात्मक 'अभिधानराजेन्द्र' नामक कोश के प्रथम भाग' के प्रारम्भ में प्रकाशित है। दोधकवृत्ति
'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के ८ वें अध्याय के चतुर्थ पाद में जो 'अपभ्रंशव्याकरण' विभाग है उसके सूत्रों की बृहद्वृत्ति में उदाहरणरूप जो 'दोग्धकदोधक-दूहे' दिये गये हैं उस पर यह वृत्ति है । हैमदोधकार्थ : ___सिद्धहेमशब्दानुशासन' के ८ वें अध्याय के 'अपभ्रंश-व्याकरण' के सूत्रों की 'बृहद्वृत्ति' में जो 'दूहे' रूप उदाहरण दिये गये हैं उनके अर्थों का स्पष्टीकरण इस ग्रन्थ में है। 'जैन ग्रन्थावली' पृ० ३०१ में इसकी १३ पत्रों की हस्तलिखित प्रति होने का उल्लेख है। प्राकृत-शब्दानुशासन:
'प्राकृतशब्दानुशासन' के कर्ता त्रिविक्रम नामक विद्वान् हैं। इन्होंने मंगलाचरण में वीर को नमस्कार किया है और 'धवला' के कर्ता वीरसेन और जिनसेन आदि आचार्यों का स्मरण किया है, इससे मालूम होता है कि ये दिगंबर जैन थे। इन्होंने विद्य अर्हन्नन्दि के पास बैठकर जैन शास्त्रों का अध्ययन किया था। इन्होंने खुद को सुकविरूप में उल्लिखित किया है परन्तु इनके किसी काव्यग्रन्थ का अभी तक पता नहीं लगा है। हाँ, इस 'प्राकृतव्याकरण' के सूत्रों को इन्होंने पद्यों में ग्रथित किया है जिससे इनके कवित्व की सूचना मिलती है।
विद्वानों ने त्रिविक्रम का समय ईसा की १३ वीं शताब्दी माना है। इन्होंने साधारणतया आचार्य हेमचन्द्र के 'प्राकृतव्याकरण' का ही अनुसरण किया है। इन्होंने भी आचार्य हेमचन्द्र के समान आर्ष प्राकृत का उल्लेख किया है परन्तु आर्ष और देश्य रूढ़ होने के कारण स्वतंत्र हैं, इसलिये उनके व्याकरण की जरूरत नहीं है, साहित्य में व्यवहृत प्रयोगों द्वारा ही उनका ज्ञान हो
१. यह भाग जैन श्वेतांबर समस्तसंघ, रतलाम से वि० सं० १९७० में
प्रकाशित हुभा है। २. यह हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन से प्रकाशित है।
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