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व्याकरण
पत्रों की प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के संग्रह में विद्यमान है ।
आचार्य हरिप्रभसूरि के समय और गुरु के विषय में कुछ मानने में नहीं आया । इन्होंने अन्त में शान्तिप्रभसूरि के संप्रदाय में होने का उल्लेख इस प्रकार किया है :
इति श्रीहरिप्रभसूरिविरचितायां प्राकृतदीपिकायां चतुर्थः पादः
समाप्तः ।
मन्दमतिविनेयबोधहेतोः श्रीशान्तिप्रभसूरि संप्रदायात् । अस्यां बहुरूपसिद्धौ विदधे सूरिहरिप्रभः प्रयत्नम् ॥ हम प्राकृतदु ढिका :
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'सिद्धहेम शब्दानुशासन' के ८ वें अध्याय पर आचार्य सौभाग्यसागर के शिष्य उदयसौभाग्यगणि ने ' है मप्राकृतढुंढिका' अपरनाम 'व्युत्पत्ति- दीपिका' नामक वृत्ति की रचना वि० सं० १५९१ में की है । ' प्राकृत प्रबोध ( प्राकृतवृत्तिदु ढिका ) :
'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के ८ वें अध्याय पर मलधारी उपाध्याय नरचन्द्रसूरि ने अवचूरिरूप ग्रन्थ की रचना की है। इसके अन्त में उन्होंने ग्रन्थ-निर्माण का हेतु इस प्रकार बतलाया है :
नानाविधैर्विधुरितां विबुधैः सबुद्ध्या
तां रूपसिद्धिमखिलामवलोक्य शिष्यैः । अभ्यर्थितो मुनिरनुब्झितसंप्रदाय - मारम्भमेनमकरोन्नरचन्द्रनामा
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इस ग्रन्थ में 'तत्त्वप्रकाशिका' ( बृहद्वृत्ति ) में निर्दिष्ट उदाहरणों की सूत्र - पूर्वक साधनिका की गई है । 'न्यायकंदली' की टीका में राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रतियाँ अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में हैं ।
प्राकृतव्याकृति ( पद्यविवृति ) :
आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने आचार्य हेमचन्द्र के सूत्रों की स्वोपज्ञ सोदाहरण वृत्ति को पद्य में ग्रथित कर उसका 'प्राकृतव्याकृति' नाम रखा है ।
१. यह वृत्ति भीमसिंह माणेक, बम्बई से प्रकाशित हुई है ।
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