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व्याकरण
प्राकृत भाषा के व्याकरण और साहित्यिक प्रवाह को लक्ष्य में रखकर ही की है । आचार्य ने 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए बताया है कि जिसकी प्रकृति संस्कृत है उससे उत्पन्न व आगत प्राकृत है । इससे यह सिद्ध नहीं होता कि संस्कृत में से प्राकृत का अवतार हुआ । यहाँ आचार्य का अभिप्राय यह है कि संस्कृत के रूपों को आदर्श मानकर प्राकृत शब्दों का अनुशासन किया गया है । तात्पर्य यह है कि संस्कृत की अनुकूलता के लिये प्रकृति को लेकर प्राकृत भाषा के आदेशों की सिद्धि की गई है ।
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प्राकृत वैयाकरणों की पाश्चात्य और पौरस्त्य इन दो शाखाओं में आचार्य हेमचन्द्र पाश्चात्य शाखा के गणमान्य विद्वान् हैं । इस शाखा के प्राचीन वैयाकरण चण्ड आदि की परंपरा का अनुसरण करते हुए आचार्य हेमचंद्रसूरि के 'प्राकृतव्याकरण' में चार पाद हैं। प्रथम पाद के २७१ सूत्रों में संधि, व्यञ्जनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वरव्यत्यय और व्यञ्जनव्यत्यय - इनका क्रमशः निरूपण किया गया है। द्वितीय पाद के २१८ सूत्रों में संयुक्त व्यञ्जनों के विपरिवर्तन, समीकरण, स्वरभक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का वर्णन है । तृतीय पाद के १८२ सूत्रों में कारक - विभक्तियों तथा क्रिया- रचना से संबंधित नियम बनाये गये हैं। चौथे पाद में ४४८ सूत्र हैं, जिनमें प्रथम २५९ सूत्रों में धात्वादेश और शेष सूत्रों में क्रमशः शौरसेनी के २६० से २८६ सूत्र, मागधी के २८७ से ३०२, पैशाची के ३०३ से ३२४, चूलिकापैशाची के ३२५ से ३२८ और फिर अपभ्रंश के ३२९ से ४४६ सूत्र हैं । अंत के समाप्ति-सूचक दो सूत्रों ( ४४७ और ४४८ ) में यह कहा गया है कि प्राकृतों में उक्त लक्षणों का व्यत्यय भी पाया जाता है तथा जो बात यहाँ नहीं बताई गई है वह 'संस्कृतवत्' सिद्ध समझनी चाहिये ।
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आचार्य हेमचंद्रसूरि ने आगम आदि ( जो अर्धमागधी भाषा में लिखे गये हैं ) साहित्य को लक्ष्य में रखकर तृतीय सूत्र व अन्य अनेक सूत्रों की वृत्ति में 'आर्षं प्राकृत' का उल्लेख किया है और उसके उदाहरण भी दिये हैं किन्तु वे बहुत ही अल्प प्रमाण में हैं । कश्चित् केचित् अन्ये आदि शब्दप्रयोगों से मालूम होता है कि अपने से पहले के व्याकरणों से भी सामग्री ली है । मागधी का विवेचन करते हुए कहा है कि अर्धमागधी में पुल्लिंग कर्ता के लिये एक वचन में 'अ' के स्थान में 'ए' कार हो जाता है । ( वस्तुतः यह नियम मागधी भाषा के लिये लागू होता है । ) अपभ्रंश भाषा का यहाँ विस्तृत विवेचन हैं । ऐसा विवेचन इतनी पूर्णता से कोई भी नहीं कर पाया है। अपभ्रंश के अनेक अज्ञात
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