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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास में है। नाम की विभक्तियों के उदाहरणार्थ जयानंदमुनिरचित 'सर्वजिनसाधारणस्तोत्र' दिया गया है। ___ संस्कृत उक्ति याने बोलने की रीति के नियम इस व्याकरण में दिये गये हैं। कर्ता, कर्म और भावी उक्तियों का इसमें मुख्यतया विवेचन किया गया है इसलिये इसे औक्तिक नाम दिया गया है ।
'मुग्धावबोध-औक्तिक' में विभक्तिविचार, कृदंतविचार, उक्तिभेद और शब्दों का संग्रह है। 'प्राचीन गुजराती गद्यसंदर्भ' पृ० १७२-२०४ में यह छपा है।
इनके अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं: १. विचारामृतसंग्रह ( रचना वि० सं० १४४३) २. सिद्धान्तालापकोद्धार ३. कायस्थितिस्तोत्र ४. 'विश्वश्रीद्ध' स्तव ( इसमें अष्टादशचक्रविभूषित वीरस्तव है।) ५. 'गरीयोगुण' स्तव ( इसको पंचजिनहारबंधस्तव भी कहते हैं।) ६. पर्युषणाकल्प-अवचूर्णि ७. प्रतिक्रमणसूत्र-अवचूर्णि
८. प्रज्ञापना-तृतीयपदसंग्रहणी बालशिक्षा:
श्रीमाल ठक्कुर क्रूरसिंह के पुत्र संग्रामसिंह ने 'कातन्त्रव्याकरण' का बोध कराने के हेतु 'बालशिक्षा' नामक औक्तिक की रचना वि० सं० १३३६ में की थी। चाक्यप्रकाश
बृहत्तपागच्छीय रत्नसिंहसूरि के शिष्य उदयधर्म ने वि० सं० १५०७ में 'वाक्यप्रकाश' नामक औक्तिक की रचना सिद्धपुर में की है। इसमें १२८ पद्य है।
इसका उद्देश्य गुजराती द्वारा संस्कृत भाषा का व्याकरण सिखाने का है। इसलिए यहाँ कई पद्य गुजराती में देकर उसके साथ संस्कृत में अनुवाद
१. इस ग्रंथ का कुछ संदर्भ पुरातत्व' (पु० ३, अंक १, पृ० ४०.५३ ) में
पं० लालचन्द्र गांधी के लेख में छपा है । यह ग्रंथ भभी मप्रकाशित है।
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