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व्याकरण
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दिया गया है। कृति का आरंभ 'प्राध्वर' और 'वक्र' इन उक्ति के दो प्रकारों
और उपप्रकारों से किया गया है। कर्तरि और कर्मणि को गिनाकर उदाहरण दिये गए हैं। इसके बाद गणज, नामज और सौत्र ( कण्डवादि)-ये तीन प्रकार धातु के बताये हैं । परस्मैपदी धातु के तीन भेदों का निर्देश है । 'वर्तमान' वगैरह १० विभक्तियों, तद्धित प्रत्यय और समास की जानकारी दी गई है।
इन्होंने 'सन्नमत्रिदश' से प्रारम्भ होनेवाले द्वात्रिंशद्दलकमलबंध-महावीरस्तव की रचना की है।
(क) इस 'वाक्यप्रकाश' पर सोमविमल ( हेमविमल ) सूरि के शिष्य हर्षकुल ने टीका की रचना वि० सं० १५८३ के आसपास की है।
(ख) कीर्तिविजय के शिष्य जिनविजय ने सं० १६९४ में इस पर टीका रची है।
(ग) रत्नसूरि ने पर इस टीका लिखी है, ऐसा 'जैन ग्रंथावली' पृ० ३०७ में उल्लेख है।
(घ) किसी अज्ञात मुनि ने 'श्रीमज्जिनेन्द्रमानम्य' से प्रारंभ होनेवाली टीका की रचना की है।
उक्तिरत्नाकर
पाठक साधुकीर्ति के शिष्य साधुसुन्दरगणि ने वि० सं० १६८० के आसपास में 'उत्तिरत्नाकर' नामक औक्तिक ग्रंथ की रचना की है। अपनी देशभाषा में प्रचलित देश्य रूपवाले शब्दों के संस्कृत प्रतिरूपों का ज्ञान कराने के हेतु इस ग्रंथ का संकलन किया है।
इसमें षटकारक विषय का निरूपण है। विद्यार्थियों को विभक्ति ज्ञान के साथ-साथ कारक के अर्थों का ज्ञान भी इससे हो जाता है। इसमें २४०० देश्य शब्द और उनके संस्कृत प्रतिरूप दिये गये हैं।
साधुसुन्दरगणि ने १. धातुरत्नाकर, २. शब्दरत्नाकर और ३. (जैसलमेर के किले में प्रतिष्ठित ) पार्श्वनाथस्तुति की रचना की है।
१. जैन स्तोत्र-समुच्चय, पृ० २६५-६६ में यह स्तोत्र छपा है।
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