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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अंगों एवं पूर्वो के एक देश के धारक हए । तदनन्तर वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य की परम्परा से ११८ वर्ष तक आकर व्युच्छिन्न हो गया। इस सब काल का योग ६८३ वर्ष होता है।'
लोहाचार्य के स्वर्गलोक को प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोस, महाकम्मपयडिपाहुड आदि के धारक हुए । इस तरह प्रमाणीभूत महर्षिरूपी प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुडरूपी अमृतजल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुफा में भूतबलि और पुष्पदन्त को सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड अर्पित किया। तब भूतबलि भट्टारक ने श्रुतरूपी नदी-प्रवाह के व्युच्छेद के भय से भव्यजनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छः खण्ड बनाये अर्थात् षट्खण्डागम का निर्माण किया ।२
शककाल-उपर्युक्त ६८३ वर्ष में से ७७ वर्ष ७ मास कम करने पर ६०५ वर्ष ५ मास रहते हैं । यह वीर जिनेन्द्र के निर्वाणकाल से लेकर शककाल के प्रारम्भ होने तक का काल है। इस काल में शक नरेन्द्र के काल को मिलाने पर वर्धमान जिन के मुक्त होने का काल आता है।
कुछ आचार्य वीर जिनेन्द्र के निर्वाणकाल से १४७९३ वर्ष बीतने पर शक नरेन्द्र की उत्पत्ति मानते हैं।
__ कुछ आचार्य ऐसे भी हैं जो वर्धमान जिन के निर्वाणकाल से ७९९५ वर्ष ५ मास बीतने पर शक नरेन्द्र की उत्पत्ति मानते हैं ।"
इन तीन मान्यताओं में से एक यथार्थ होनी चाहिये। तीनों यथार्थ नहीं हो सकती क्योंकि इनमें परस्पर विरोध है।
सकलादेश और विकलादेश-सकलादेश प्रमाण के अधीन है और विकलादेश नय के अधीन है। 'स्यादस्ति' इत्यादि वाक्यों का नाम सकलादेश है क्योंकि इनके प्रमाणनिमित्तक होने के कारण 'स्यात्' शब्द से समस्त अप्रधानभूत धर्मों
१. वही, पृ० १३०-१३१. ( जयधवला में भी यही वर्णन है। कहीं-कहीं नामों
में थोड़ा अन्तर है । देखिए-कषायपाहुड, भा० १, पृ० ८४-८७.) २. वही, पृ० १३३. ३. वही, पृ० १३१-१३२. ४. वही, पृ० १३२. ५. वही, पृ० १३२-१३३.
६. वही, पृ० १३३.
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