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________________ कर्मप्राभृत की व्याख्याएँ का सचन होता है। 'अस्ति' इत्यादि वाक्यों का नाम विकलादेश है क्योंकि ये नयों से उत्पन्न हैं। पूज्यपाद भट्टारक ने भी सामान्य नय का लक्षण यही बताया है। तदनुसार प्रमाण से प्रकाशित पदार्थों के पर्यायों का प्ररूपण करने वाला नय है। प्रमाण से वस्तु के सकल धर्म प्रकाशित होते हैं । नय उन धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रकाशित करता है अर्थात् नय वस्तु के विकल धर्म का प्रकाशक है । प्रभाचन्द्र भट्टारक ने भी कहा है कि प्रमाण के आश्रित परिणामभेदों से वशीकृत पदार्थविशेषों अर्थात् पदार्थों के पर्यायों के प्ररूपण में समर्थ जो प्रयोग होता है वह नय है। सारसंग्रह में पूज्यपाद ने भी कहा है कि अनन्तपर्यायात्मक वस्तु के किसी एक पर्याय का ज्ञान करते समय श्रेष्ठ हेतु की अपेक्षा करनेवाला निर्दोष प्रयोग नय कहलाता है। समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है कि स्याद्वाद से प्रकाशित पदार्थों के पर्यायों को प्रकट करने वाला नय है। यहाँ स्याद्वाद का अर्थ प्रमाण है। ___ अर्थपर्याय, व्यञ्जनपर्याय, द्रव्य और भाव-पर्याय के दो प्रकार हैं : अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय । अर्थपर्याय थोड़े समय तक रहने के कारण अथवा अति विशेष होने के कारण एकादि समय तक रहने वाला तथा संज्ञा-संज्ञिसम्बन्ध के से रहित है । व्यञ्जनपर्याय जघन्यतया अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतया असंख्येय लोकमात्र काल तक रहनेवाला अथवा अनादि-अनन्त है। इनमें से व्यञ्जनपर्याय से परिगृहीत द्रव्य भाव होता है। इसका वर्तमान काल जघन्यतया अन्तर्मुहर्त तथा उत्कृष्टतया संख्येय लोकमात्र अथवा अनादिनिधन है क्योंकि विवक्षित पर्याय के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक वर्तमान काल माना जाता है । अतः भाव की द्रव्यार्थिक नयविषयता विरुद्ध नहीं है। ऐसा मानने पर सन्मतिसूत्र के साथ विरोध नहीं होता क्योंकि उसमें शुद्ध ऋजुसूत्र नय से विषयीकृत पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव स्वीकार किया गया है। इसी चर्चा के प्रसङ्ग से टोकाकार ने आगे सन्मतिसूत्र की निम्न गाथा उद्धृत की है : उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविणठें ।। । अर्थात् पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं तथा नष्ट होते हैं। द्रव्यार्थिक नय को अपेक्षा से सब सदा अनुत्पन्न तथा अविनष्ट हैं। २. वही, पृ० २४२-२४३. १. वही, पृ० १६५-१६७. ३. वही, पृ० २४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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