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कर्मप्राभृत को व्याख्याएं काल को वर्धमान जिनेन्द्र की आयु में मिला देने पर चतुर्थ आरे के ७५ वर्ष १०. दिन शेष रहने पर महावीर के स्वर्ग से अवतीर्ण होने का काल होता है ।।
___ उक्त दो उपदेशों में से कौन-सा उपदेश ठीक है, इस विषय में एलाचार्य का शिष्य अर्थात् धवलाकार वीरसेन अपनी जीभ नहीं चलाता याने कुछ नहीं कहता क्योंकि न तो एतद्विषयक कोई अन्य उपदेश ही प्राप्त है और न इन दो में से किसी एक में कोई बाधा ही उत्पन्न होती है । किन्तु यह निश्चित है कि दोनों में से कोई एक ही ठीक है ।२
महावीर की शिष्य-परम्परा-कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले भाग में भगवान महावीर के मुक्त होने पर केवलज्ञान की परम्परा को धारण करने वाले गौतम स्वामी हुए। १२ वर्ष तक विहार करके गौतम स्वामी के मुक्त हो जाने पर लोहार्याचार्य केवलज्ञान की परम्परा के धारक हुए । १२ वर्ष तक विहार करके लोहार्य भट्टारक के मुक्त हो जाने पर जम्बू भट्टारक केवलज्ञान-परम्परा के धारक हुए । ३८ वर्ष तक विहार करके जम्बू भट्टारक के मुक्त हो जाने पर भरत क्षेत्र में केवलज्ञान की परम्परा का व्युच्छेद हो गया। इस प्रकार महावीर के मुक्त होने पर ६२ वर्ष से केवलज्ञानरूपी सूर्य भरत क्षेत्र में अस्त हुआ। उस समय सकल श्रुतज्ञान की परम्परा के धारक विष्णु आचार्य हुए। तदनन्तर अविच्छिन्न सन्तानरूप से नन्दि, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु सकल श्रुत के धारक हुए । इन पाँच श्रुतकेवलियों के काल का योग १०० वर्ष है। भद्रबाहु भट्टारक का स्वर्गवास होने पर भरत क्षेत्र में श्रुतज्ञानरूपी पूर्णचन्द्र अस्त हो गया। उस समय ग्यारह अंगों व विद्यानुप्रवादपर्यन्त दृष्ठिवाद के धारक विशाखाचार्य हुए । इसके आगे के चारों पूर्व उनका एक देश धारण करने के कारण व्युच्छिन्न हो गये। फिर वह विकल श्रुतज्ञान प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन की परम्परा से १८३ वर्ष तक आकर व्युच्छिन्न हो गया । धर्मसेन भट्टारक के स्वर्गगमन के अनन्तर दृष्टिवादरूपी प्रकाश के नष्ट हो जाने पर ग्यारह अंगों व दृष्टिवाद के एक देश के धारक नक्षत्राचार्य हुए। तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस की परम्परा से २२० वर्ष तक आकर व्युच्छिन्न हो गया। कंसाचार्य के स्वर्गगमन के अनन्तर एकादशांगरूपी प्रकाश के नष्ट हो जानेपर सुभद्राचार्य आचारांग के और शेष
१. वही, पृ० १२५-१२६. २. वही, पृ० १२६. ( जयधवला में भी यही
वर्णन उपलब्ध है । देखिये-कसायपाहुड, भा० १, पृ० ७४-८२.) Jain Education International For Private & Personal Use Only
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