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कर्मप्राभृत की व्याख्याएं प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का है : एक-एकमूलप्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढमूलप्रकृतिबन्ध । उत्तरप्रकृतिबन्ध के चौबीस अनुयोगद्वार हैं जिनमें बन्धस्वामित्व भी एक है। उसीका नाम बन्धस्वामित्वविचय है । जीव और कर्मों का मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे जो एकत्व-परिणाम होता है उसे बन्ध कहते हैं । इस बन्ध का जो स्वामित्व है उसका नाम है बन्धस्वामित्व । उसका जो विचय है वह बन्धस्वामित्वविचय है। विचय, विचारणा, मीमांसा और परीक्षा एकार्थक हैं।'
तीर्थोत्पत्ति-वेदना खण्ड में अन्तिम मंगलसूत्र 'णमो वद्धमाणबद्धरिसिस्स' की व्याख्या के प्रसंग से धवलाकार ने तीर्थ को उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए समवसरणमण्डल की रचना का रोचक वर्णन किया है तथा वर्धमान भट्टारक को तीर्थ उत्पन्न करनेवाला बताया है।
सर्वज्ञत्व-जीव केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनी, मोहनीय के क्षय से वीतराग तथा अन्तराय के क्षय से अनन्तबलयुक्त होता है । आवरण के क्षीण हो जानेपर ज्ञान की परिमितता नहीं रहती, क्योंकि प्रतिबन्धरहित सकलपदार्थावगमनस्वभाव जीव के परिमिति पदार्थों के जानने का विरोध है। कहा भी है :
ज्ञ अर्थात् ज्ञानस्वभाव जीव प्रतिबन्धक का अभाव होने पर ज्ञेय के विषय में अज्ञ अर्थात् ज्ञानरहित कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। क्या अग्नि प्रतिबन्धक के अभाव में दाह्य पदार्थ को नहीं जलाती अर्थात् अवश्य जलाती है।
इस प्रकार के ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व से युक्त वर्धमान भट्टारक ने तीर्थ को उत्पत्ति की।
महावीर-चरित-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का है। जिस काल में बल, आयु व उत्सेध का उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है तथा जिस काल में उनका अवसर्पण अर्थात् हानि होती है वह अवसर्पिणी काल है। ये दोनों सुषमसुषमादि आरों के भेद से छः-छः प्रकार के है। इस भरतक्षेत्र के अवसर्पिणी काल के दुष्षमसुषमा नामक चतुर्थ आरे के ३३ वर्ष ६ मास ९ दिन शेष रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई। यह कैसे ? चतुर्थ
२. पुस्तक ९, पृ० १०९-११३.
१. पुस्तक ८, पृ० १-३. ३. वही, पृ० ११८-११९.
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