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________________ ७६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अनुभवनसम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं हो सकता। अन्यथा सब नारकी सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे। इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि वेदनासामान्य सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है। जिन जीवों में ऐसा उपयोग होता है कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्व के कारण अथवा अमुक असंयम के कारण उत्पन्न हुई है उन्हीं जीवों की वेदना सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण होती है।' बन्धक-क्षुद्रकबन्ध का व्याख्यान प्रारम्भ करने के पूर्व टोकाकार ने महाकर्मप्रकृतिप्राभूतरूपी पर्वत का अपने बुद्धिरूपो सिर से उद्धार कर पुष्पदन्ताचार्य को समर्पित करनेवाले धरसेनाचार्य की जयकामना की है : जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो। बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स ।। महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में से छठे अनुयोगद्वार बन्धक के चार अधिकार हैं : बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । बन्धक जीव ही होते हैं क्योंकि मिथ्यात्वादि बन्ध के कारणों से रहित अजीव के बन्धकत्व की उपपत्ति नहीं बनती । बन्धक चार प्रकार के हैं : नामबन्धक, स्थापनाबन्धक, द्रव्यबन्धक और भावबन्धक । धवलाकार ने इन सब का स्वरूप समझाया है । बन्धस्वामित्वविचय--साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहंत और सिद्धइन पाँच लोकपालों को नमस्कार करके टीकाकार ने बन्ध के स्वामित्व का विचार किया है। साहूवज्झाइरिए अरहते वंदिऊण सिद्धे वि। जे पंच लोगवाले वोच्छं बंधस्स सामित्तं ॥ कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में बन्धन छठा अनुयोगद्वार है । उसके बन्ध आदि चार भेद अथवा अधिकार हैं। इनमें से बन्ध नामक प्रथम अधिकार में जीव और कर्मों के सम्बन्ध का नय की अपेक्षा से निरूपण है । बन्धक नामक द्वितीय अधिकार में ग्यारह अनुयोगद्वारों से बन्धकों का निरूपण किया गया है। बन्धनीय नामक तृतीय अधिकार तेईस वर्गणाओं से बन्धयोग्य एवं अबन्धयोग्य पुद्गल द्रव्य का प्ररूपण करता है। बन्धविधान नामक चतुर्थ अधिकार चार प्रकार का है : प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध के दो भेद हैं : मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । मूल १. वही, पृ० ४२२-४२३. २. पुस्तक ७, पृ० १.५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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