SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मप्राभूत की व्याख्याएँ पदार्थ का ग्रहण होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । यह चार प्रकार का है : अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । विषय और विषयी के सम्बन्ध के अनन्तर होने वाला प्रथम ग्रहण अवग्रह कहलाता है। अवग्रह से गृहीत पदार्थ के विषय में विशेष आकांक्षा करना ईहा कहलाता है। ईहा द्वारा जाने गये पदार्थ का निश्चयरूप ज्ञान अवाय कहलाता है। अविस्मरणरूप संस्कार को उत्पन्न करने वाला ज्ञान धारणा कहलाता है।' शब्द तथा धूमादि लिंग द्वारा होने वाला अर्थान्तर का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। शब्द के निमित्त से उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान दो प्रकार का है : अंग और अंगबाह्य । अंग के बारह तथा अंगबाह्य के चौदह भेद हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं : अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । समस्त मूर्त पदार्थों को साक्षात् जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। मन का आश्रय लेकर मनोगत पदार्थों का साक्षात्कार करने वाले ज्ञान को मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। त्रिकालगत समस्त पदार्थों को साक्षात् जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। मिथ्यात्वयुक्त इन्द्रियजन्य ज्ञान को मति-अज्ञान कहते हैं। मिथ्यात्वयुक्त शाब्द ज्ञान श्रत-अज्ञान कहलाता है। मिथ्यात्वसहित अवधिज्ञान को विभंगज्ञान ( अवधि-अज्ञान ) कहते हैं। लेश्या-टीकाकार ने 'लेस्साणुवादेण अस्थि किण्हलेस्सिया......' सूत्र की व्याख्या करते हुए लेश्या की परिभाषा इस प्रकार दी है : जो कर्मस्कन्ध से आत्मा को लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं। इस परिभाषा का समर्थन करते हुए टीकाकार ने कहा है कि यहाँ 'कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है' इस परिभाषा को स्वीकार नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा मानने पर सयोगिकेवली लेश्यारहित हो जायगा जबकि शास्त्र में सयोगिकेवली शुक्ललेश्यायुक्त माना गया है। गणितप्रधान द्रव्यानुयोग-द्रव्यप्रमाणानुगम, द्रव्यानुयोग अथवा संख्याप्ररूपणा का विवेचन प्रारम्भ करने के पूर्व धवलाकार ने लिखा है कि जिसने केवलज्ञान के द्वारा षड्द्रव्य को प्रकाशित किया है तथा जो प्रवादियों से नहीं जीता जा सका उस जिन को नमस्कार करके गणितप्रधान द्रव्यानुयोग का प्रतिपादन करता हूँ : १, पुस्तक १, पृ० ३५३-३५४. २. वही, पृ० ३५७-३५८. ३. वही, पृ० ३५८. ४. वही. ५. वही, पृ० ३८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy