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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
वेद विशेषण से युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हैं, ऐसा मानना चाहिए । इसका समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण से युक्त संज्ञा को धारण करनेवाली मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता ।'
स्त्री-पुरुष नपुंसक - -जो दोषों से अपने को और दूसरे को आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं । अथवा जो पुरुष की आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं । जो उत्कृष्ट गुणों में और उत्कृष्ट भोगों में शयन करता है उसे पुरुष कहते हैं । अथवा जिस कर्म के उदय से जीव सुषुप्त पुरुष के समान अनुगतगुण तथा अप्राप्तभोग होता है उसे पुरुष कहते हैं । अथवा जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह पुरुष है । जो न स्त्री है, न पुरुष, उसे नपुंसक कहते हैं । उसमें स्त्री और पुरुष उभयविषयक अभिलाषा पाई जाती है । अपने कथन की पुष्टि के लिए टीकाकार ने 'उक्तं च' कहकर निम्नलिखित गाथाएँ उद्धृत की हैं :
छादेदि सयं दोसेण यदो छादइ परं हि दोसेण । छादणसीला जम्हा तम्हा सा वणिया इत्थी ॥ १७० ॥ पुरुगुणभोगे सेदे करेदि लोगम्हि पुरुगुणं कम्मं । पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वणिदो पुरिसो || ७१ ॥ वित्थि णेव पुमं णवंसओ उभयलिंगवदिरित्तो । इट्ठावागस माणगवेयणगरुओ
कलुसचित्तो ॥ १७ ॥
ज्ञान-अज्ञान- - जो जानता है उसे ज्ञान कहते हैं । अथवा जिसके द्वारा जीव जानता है, जानता था अथवा जानेगा उसे ज्ञान कहते हैं । यह ज्ञानावरणीय कर्म के एकदेशक्षय से अथवा सम्पूर्ण ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला आत्मपरिणाम है । ज्ञान दो प्रकार का है : प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष ज्ञान के दो भेद हैं : मतिज्ञान और श्रुतज्ञान | पाँच इन्द्रियों और मन से जो
१. पुस्तक १, पृ० ३३३.
२. दोषैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री । अथवा पुरुष स्तृणाति आकाङ्क्षतीति स्त्री" । पुरुगुणेषु पुरुभोगेषु च शेते स्वपितीति पुरुषः । सुषुप्तपुरुषवदनुगत गुणोऽप्राप्तभोगश्च यदुदयाज्जीवो भवति स पुरुषः । पुरुगुणं कर्म शेते करोतीति वा पुरुषः । न स्त्री न पुमात्रपुंसकमुभयाभिलाष इति यावत् ।
-वही, पृ० ३४० - ३४१.
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