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कर्मप्राभूत की व्याख्याएं
विरोधी वचन-आचार्यों के अमुक वचनों में आनेवाले विरोध की चर्चा करते हुए टीकाकार ने कहा है कि ये वचन जिनेन्द्रदेव के न होकर बाद में होने वाले आचार्यों के हैं अतः उनमें विरोध आना सम्भव है। तो फिर आचार्यों द्वारा कहे गये सत्कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत को ( जिनके उपदेशों में अमुक प्रकार का विरोध है ) सूत्रत्व कैसे प्राप्त हो सकता है ? इस शंका का समाधान करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि जिनका अर्थरूप से तीर्थंकर ने कथन किया है तथा ग्रन्थरूप से गणधरदेव ने निर्माण किया है ऐसे आचार्य-परम्परा से निरंतर चले आने वाले बारह अंग युग के स्वभाव से बुद्धि की क्षीणता होने पर उत्तरोत्तर क्षीण होते गये। पापभीरु तथा गृहीतार्थ आचार्यों ने सुष्ठुबुद्धि पुरुषों का क्षय देखकर तीर्थव्यच्छेद के भय से अवशिष्ट अंश को ग्रन्थबद्ध किया अतएव उन ग्रंथों में असूत्रत्व नहीं आ सकता। यदि ऐसा है तो दो प्रकार के विरोधी वचनों में से किस वचन को सत्य माना जाय ? इसका निर्णय तो श्रुतकेवली अथवा केवली ही कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं । इसलिए वर्तमान काल के पापभीरु आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिए।'
स्त्री-मुक्ति-आगम से द्रव्यस्त्रियों की मुक्ति सिद्ध नहीं है क्योंकि वस्त्रसहित होने के कारण उनके अप्रत्याख्यान गुणस्थान होता है अतः उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि वस्त्र-सहित होते हुए भी उनके भावसंयम होने में कोई विरोध नहीं तो भी ठीक नहीं। द्रव्यस्त्रियों के भावसंयम नहीं होता क्योंकि भावसंयम मानने पर भाव-असंयम का अविनाभावी वस्त्रादि उपादान का ग्रहण नहीं हो सकता । तो फिर स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं, यह कैसे ? भावस्त्रीविशिष्ट अर्थात् स्त्रीवेदयुक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं। यदि यह कहा जाय कि बादरकषाय गुणस्थान से ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता अतः भावभेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं हो सकता तो भी ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ पर वेद की प्रधानता नहीं है किन्तु गति की प्रधानता है और गति पहले नष्ट नहीं होती। तो फिर
१. पुस्तक १, पृ० २२१-२२२. २. आगे द्रव्यनपुंसक को भी वस्त्रादि का त्याग करने में असमर्थ बताया गया
है । जैसा कि टीकाकार ने लिखा है : ण च दवित्थिणसयवेदाणं चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो।
-पुस्तक ११, पृ० ११४-११५.
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