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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास व्याख्याप्रज्ञप्ति-अंग २२८००० पदों द्वारा जीवादिविषयक साठ हजार प्रश्नों का निरूपण करता है।
नाथधर्मकथांग ५५६०००पदों द्वारा तीर्थंकरों की धर्मदेशना का, संशय को प्राप्त गणधरदेव के सन्देह को दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथाओं व उपकथाओं का वर्णन करता है ।
उपासकाध्ययनांग ११७०००० पदों द्वारा दर्शनादि ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उनके व्रत धारण करने की विधि तथा उनके आचरण का वर्णन करता है।
अन्तकृद्दशांग २३२८००० पदों द्वारा एक-एक तीर्थकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्ग सहन करके तथा प्रातिहार्य ( अतिशयविशेष) प्राप्त करके 'निर्वाण को प्राप्त हुए दस-दस अन्तकृतों का वर्णन करता है ।
अनुत्तरौपपादिकदशांग ९२४४००० पदों द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में अनेक प्रकार के कठोर परीषह सहकर प्रातिहार्य प्राप्त करके अनुत्तर विमान में गए हुए दस-दस अनुत्तरौपपादिकों का वर्णन करता है।
प्रश्नव्याकरणांग ९३१६००० पदों द्वारा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और 'निर्वेदनी-इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन करता है ।
विपाकसूत्रांग १८४००००० पदों द्वारा पुण्य और पापरूप कर्मों के फल का वर्णन करता है।
इन ग्यारह अंगों के पदों का योग ४१५०२००० है।'
दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में क्रियावादियों की १८०, अक्रियावादियों की ८४, अज्ञानवादियों की ६७ और विनयवादियों की ३२-इस प्रकार कुल ३६३ दृष्टियों ( मतों ) का निरूपण एवं निराकरण किया गया है। इसके पाँच अर्थाधिकार हैं : परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । टीकाकार ने इनके भेद-प्रभेदों का बहुत विस्तार से वर्णन किया है एवं बताया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्बन्ध पूर्वगत के द्वितीय भेद अग्रायणीयपूर्व से है।
धवला का यह श्रुतवर्णन समवायांग, नन्दी आदि सूत्रों के श्रुतवर्णन से बहुतकुछ मिलता जुलता है। बीच-बीच में टीकाकार ने तत्त्वार्थभाष्य के वाक्य भी उद्धृत किये हैं।
१. वही, पृ० ९९-१०७; पुस्तक ९, पृ० १९७-२०३ ( जयधवला में भी इसी
प्रकार का वर्णन है । देखिएकसायपाहुड, भा० १, पृ० ९३-९६. ) २. पुस्तक १, पृ १०७-१३०; पुस्तक ९, पृ० २०३-२२९.
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