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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास केवलणाणुज्जोइयछदव्वमणिज्जियं पवाईहि।
णमिऊण जिणं भणिमो दव्वणिओगं गणियसारं ॥ इसके बाद आचार्य ने 'दव्वपमाणाणुगमेण"......' सूत्र की उत्थानिका के रूप में लिखा है कि जिन्होंने चौदह जीवसमासों-गुणस्थानों के अस्तित्व को जान लिया है उन शिष्यों को अब उन्हीं के परिमाण का ज्ञान कराने के लिए भूतबलि आचार्य सूत्र कहते हैं।'
परिमाण अथवा प्रमाण का अर्थ है माप । यह चार प्रकार का होता है : १. द्रव्यप्रमाण, २. क्षेत्रप्रमाण, ३. कालप्रमाण, ४. भावप्रमाण । प्रस्तुत प्रतिपादन में द्रव्यप्रमाण के बाद क्षेत्रप्रमाण का प्ररूपण न करते हुए कालप्रमाण का प्ररूपण किया गया है।
द्रव्यप्रमाण के तीन भेद हैं : संख्येय, असंख्येय और अनन्त । संख्येय तीन प्रकार का है : जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । गणना की आदि एक से मानो जाती है किन्तु एक केवल वस्तु की सत्ता की स्थापना करता है, भेद को सूचित नहीं करता । भेद का सूचन दो से प्रारम्भ होता है अतएव दो को संख्येय का आदि माना गया है। इस प्रकार जघन्य संख्येय दो है। उत्कृष्ट संख्येय जघन्य परीत-असंख्येय से एक कम होता है । जघन्य संख्येय व उत्कृष्ट संख्येय के मध्य में आने वाली सब संख्याएँ मध्यम संख्येय के अन्तर्गत हैं। असंख्येय के तीन भेद हैं : परीत, युक्त और असंख्येय । इन तीनों में से प्रत्येक के पुनः तीन भेद हैं : जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । अनन्त भी तीन प्रकार का है : परीत, युक्त और अनन्त । टीकाकार ने इन सब भेद-प्रभेदों का अति सूक्ष्मता से विचार किया है। इसी प्रकार कालप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण आदि का भी अति सूक्ष्म प्रतिपादन किया है। इससे टीकाकार की गणितविषयक निपुणता प्रमाणित
होती है।
पृथिवीकायिकादि जीव-धवलाकार ने 'कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया....' सूत्र का व्याख्यान करते हुए बताया है कि यहाँ पर पृथिवी है काय अर्थात् शरीर जिनका उन्हें पृथिवीकाय कहते हैं, ऐसा नहीं
१. पुस्तक ३, पृ० १. २. वही, पृ० १०-२६०. एतद्विषयक विशेष जानकारी के लिए पुस्तक ४ में
प्रकाशित 'Mathematics of Dhavala' लेख या पुस्तक ५ में प्रकाशित उसका हिन्दी अनुवाद 'धवला का गणितशास्त्र' देखना चाहिए ।
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