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कर्मप्राभृत
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शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश: कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियों के बन्धक हैं । मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि आदि के बन्धक हैं । मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनन के बन्धक हैं । इस प्रकार विशेष की अपेक्षा से गति आदि मार्गणाओं द्वारा बन्धकों का विचार किया गया है ।
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वेदना :
वेदना खण्ड में कृति और वेदना नामक दो अनुयोगद्वारों का निरूपण किया गया है । चूँकि इस खण्ड में वेदना अनुयोगद्वार का अधिक विस्तार है अतः इसका यही नाम रखा गया है ।
प्रारंभ में आचार्य ने 'णमो जिणाणं' सूत्र द्वारा सामान्यरूप से जिनों को नमस्कार किया है । तदनन्तर अवधिजिनों, परमावधिजिनों, सर्वावधिजिनों, अनन्तावधिजिनों, कोष्ठबुद्धिजिनों, बीजबुद्धिजिनों, पदानुसारिजिनों, संभिन्नश्रोतृजिनों, ऋजुमतिजिनों, विपुलमतिजिनों, दशपूर्विजिनों, चतुर्दशपूर्विजिनों, अष्टांगमहानिमित्त कुशलजिनों, विक्रियाप्राप्तजिनों, विद्याधरजिनों, चारणजिनों, प्रज्ञाश्रवणजिनों, आकाशगामिजिनों, आशीविषजिनों, दृष्टिविषजिनों, उग्रतपोजिनों, दीप्ततपोजिनों, तप्ततपोजिनों, महातपोजिनों, घोरतपोजिनों, घोरपराक्रमजिनों, घोरगुणजिनों, खेलौषधिप्राप्तजिनों, जल्लोषधिप्राप्तजिनों, विष्ठौषधिप्राप्तजिनों, सर्वोषधिप्राप्तजिनों, मनोबलिजिनों, वचनबलिजिनों, कायबलिजिनों, क्षीरस्रविजिनों, सर्पिर्स विजिनों, मधुस्रविजिनों, अमृतस्रविजिनों, अक्षीणमहानस - जिनों, सर्व सिद्धायतनों एवं वर्धमान बुद्धर्षि को नमस्कार किया है । यह ग्रन्थकारकृत मध्य-मंगल है |
कृति - अनुयोगद्वार – कृति अनुयोगद्वार का निरूपण प्रारम्भ करते हुए आचार्य ने कृति के सात प्रकार बताये हैं : १. नामकृति, २. स्थापनाकृति, ३. द्रव्यकृति, ४. गणनकृति, ५. ग्रन्थकृति, ६. करणकृति, ७. भावकृति ।३
सात नयों में से नैगम, व्यवहार और संग्रह इन सब कृतियों की इच्छा करते हैं । ऋजुसूत्र स्थापनाकृति की इच्छा नहीं करता । शब्दादि नामकृति और भावकृति को इच्छा करते हैं ।
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१. सू० ४३ - ३२४. ३. सू० ४६,
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२. सू० १-४४ ( पुस्तक ९ )
४. सू० ४८-५०.
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