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________________ .५० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बन्धस्वामित्वविचय : बन्धस्वामित्वविचय का अर्थ है बन्ध के स्वामित्व का विचार । इस खण्ड में यह विचार किया गया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान व मार्गणास्थान में सम्भव है। बन्धस्वामित्वविचय का निरूपण दो प्रकार से होता है : सामान्य की अपेक्षा से और विशेष की अपेक्षा से । सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक-शुद्धि-संयत उपशमक और क्षपक तक पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्त राय प्रकृतियों के बन्धक हैं। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यञ्चआयु, तिर्यञ्चगति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यञ्चगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियों के बन्धक हैं। मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्टशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक तक निद्रा और प्रचला प्रकृतियों के बन्धक हैं। मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक सातावेदनीय के बन्धक हैं। इसी प्रकार असातावेदनीय आदि के बन्धकों के विषय में यथावत् समझना चाहिए।' इसी संदर्भ में तीर्थकर नाम-गोत्रकर्म बाँधने के सोलह कारण गिनाये गये हैं जो इस प्रकार हैं : १. दर्शनविशुद्धता, २. विनयसम्पन्नता, ३. शील-व्रतों में निरतिचारता, ४. षडावश्यकों में अपरिहीनता, ५. क्षण-लवप्रतिबोधनता, ६. लब्धि-संवेगसम्पन्नता, ७. यथाशक्ति तप, ८. साधुसम्बन्धी प्रासुकपरित्यागता, ९. साधुओं की समाधिसंधारणा, १०. साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्तता, ११. अर्हद्धक्ति, १२. बहुश्रुतभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. प्रवचनवत्सलता, १५. प्रवचनप्रभावनता, १६. पुनः पुनः ज्ञानोपयोगयुक्तता ।२। विशेष की अपेक्षा से नारकियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक पांच ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, साता, असाता, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकतैजस-कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग. वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परधात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, १. सू० १-३८ ( पुस्तक ८). २. सू० ४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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