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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नामकृति एक जीव की, एक अजीव की, अनेक जीवों की, अनेक अजीवों की, एक जीव और एक अजीव की, एक जीव और अनेक अजीवों की, अनेक जीवों और एक अजीव की अथवा अनेक जीवों और अनेक अजीवों की होतो है ।'
__ स्थापनाकृति काष्ठकों में, चित्रकर्मों में, पोतकर्मों में, लेप्यकर्मों में, शैलकर्मों में, गृहकर्मों में, भित्तिकर्मों में, दन्तकर्मों में, भेंडकर्मों में, अक्ष में, वराटक में अथवा अन्य प्रकार की स्थापनाओं में होती है ।
द्रव्यकृति दो प्रकार की है : आगमतः द्रव्यकृति और नोआगमतः द्रव्यकृति । आगमतः द्रव्यकृति के नौ अधिकार हैं : १. स्थिति, २. जित, ३. परिजित, ४. वाचनोपगत, ५. सूत्रसम, ६. अर्थसम, ७. ग्रन्थसम, ८. नामसम, ९. घोषसम । नोआगमतः द्रव्यकृति तीन प्रकार की है : ज्ञायकशरीर द्रव्यकृति, भावी द्रव्यकृति और ज्ञायकशरीर-भाविव्यतिरिक्त द्रव्यकृति । ३
गणनकृति अनेक प्रकार की है, यथा-एक (संख्या) नोकृति है, दो कृति एवं नोकृतिरूप से अवक्तव्य है, तीन यावत् संख्येय, असंख्येय और अनन्त कृति कहलाते हैं ।
लोक में, वेद में एवं समय में शब्दप्रबन्धनरूप अक्षरात्मक काव्यादिकों की जो ग्रन्थरचना की जाती है वह ग्रन्थकृति कहलाती है। ___ करणकृति दो प्रकार की है : मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति । मूलकरणकृति पाँच प्रकार की है : औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति, आहारशरीरमूलकरणकृति, तैजसशरीरमूलकरणकृति और कार्मणशरीरमूलकरणकृति । उत्तरकरणकृति अनेक प्रकार की है, यथा-असि, परशु, कुदाली, चक्र, दण्ड, शलाका. मृत्तिका, सूत्र आदि ।
कृतिप्राभृत का जानकार उपयोगयुक्त जीव भावकृति है।"
इन सब कृतियों में गणनकृति प्रकृत है।' गणना के बिना शेष अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं हो सकती ।
वेदना-अनुयोगद्वार-वेदना के ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं : १. वेदननिक्षेप, २. वेदननयविभाषणता, ३. वेदननामविधान, ४. वेदनद्रव्य
१. सू० ५१. ४. सू० ६६. ७. सू० ७४.
२. सू० ५२. ५. सू० ६७. ८. सू० ७६.
३. सू० ५३-६५. ६. सू० ६८-७३.
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