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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नीचे छठे वर्ग के ऊपर तथा सातवें वर्ग के नीचे हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली तक प्रत्येक गुणस्थान में संख्येय स्त्रियाँ होती हैं।'
देवगतिगत देवों में मिथ्यादृष्टि असंख्येय हैं तथा असंख्येयासंख्येय अवसर्पिणियों व उत्सपिणियों द्वारा अपहृत होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक-मिथ्यादृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि देवों का वर्णन सामान्यवत् है। भवनवासी देवों में मिथ्यादृष्टि असंख्येय होते हैं, इत्यादि ।२
इन्द्रिय की अपेक्षा से एकेन्द्रिय अनन्त हैं, अनन्तानन्त अवसर्पिणियों व उत्सपिणियों द्वारा अपहृत नहीं होते तथा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय असंख्येय हैं, असंख्येय अवसर्पिणियों और उत्सपिणियों द्वारा अपहृत होते हैं, इत्यादि । पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि असंख्येय हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली तक का कथन सामान्यवत् है। ___ काय की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादरतेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक-प्रत्येकशरीर तथा इन पांच के अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक तथा इन चार के पर्याप्त एवं अपर्याप्त असंख्येय लोकप्रमाण हैं। बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक एवं बादर वनस्पतिकायिक-प्रत्येकशरीर के पर्याप्त असंख्येय हैं, आदि। त्रसकायिक एवं त्रसकायिक-पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि असंख्येय हैं, असंख्येयासंख्येय अवसर्पिणियों व उत्सपिणियों द्वारा अपहृत होते हैं, इत्यादि ।"
योग की अपेक्षा से पंचमनोयोगियों एवं त्रिवचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि कितने हैं ? देवों के संख्यातवें भागप्रमाण हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयता संयत तक का कथन सामान्यवत् है। प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगिकेवली तक संख्येय हैं। वचनयोगियों एवं असत्यमृषा-वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि असंख्येय हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि सामान्यवत् हैं।" काययोगियों एवं औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि सामान्यवत् हैं तथा सासादनसम्यग्दृष्टि आदि मनोयोगियों के समान हैं । औदारिकमिश्र-काययोगियों में मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि सामान्यवत् हैं तथा असंयतसम्यग्दृष्टि एवं सयोगिकेवली संख्येय १. सू० ४८-४९. २. सू० ५३-७३. ३. यहां अर्थसंदर्भ की दृष्टि से 'असंख्ययासंख्येय' शब्द होना चाहिए । ४. सू० ७४-८६. ५. सू० ८७-१०२. ६. सू० १०३-१०५. ७. सू० १०६-१०९.
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