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कर्मप्राभृत
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हैं । वैक्रियिक- काययोगियों में मिथ्यादृष्टि देवों के संख्यातवें भागप्रमाण न्यून हैं। तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक् - मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्यवत् हैं । वैक्रियिकमिश्र - काययोगियों में मिथ्यादृष्टि देवों के संख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा सासादनसम्यग्दृष्टि एवं असंयत सम्यग्दृष्टि सामान्यवत् हैं । आहारक- काययोगियों में प्रमत्तसंयत चौवन हैं । आहारकमिश्र - काययोगियों में प्रमत्तसंयत संख्येय हैं । कार्मण - काययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि तथा असंयत सम्यग्दृष्टि सामान्यवत् एवं सयोगिकेवली संख्येय हैं । '
वेद की अपेक्षा से स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि देवियों से कुछ अधिक हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक का प्ररूपण सामान्यवत् है । प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक तथा क्षपक तक संख्येय हैं । पुरुषवेदियों में मिध्यादृष्टि देवों से कुछ अधिक हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक तथा क्षपक तक का प्ररूपण सामान्य के समान है । नपुंसकवेदियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक का कथन सामान्यवत् है । प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक तथा क्षपक तक संख्येय नपुंसकवेदी हैं । अपगतवेदियों में तीन प्रकार के उपशमक प्रवेशतः एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्टतः चौवन हैं तथा तीन प्रकार के क्षपक, सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं ।
कषाय की अपेक्षा से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी एवं लोभकषायी मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक सामान्यवत् हैं तथा प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण तक संख्येय हैं ।
लोभकषायी सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशमक तथा क्षपक, अकषायी उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं ।
ज्ञान की अपेक्षा से मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि सामान्यवत् हैं । विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि देवों से कुछ अधिक है तथा सासादनसम्यग्दृष्टि सामान्यवत् हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक का कथन सामान्य प्ररूपणा के समान है । इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानियों में प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक संख्येय प्राणी होते हैं । मनःपर्यायज्ञानियों में प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायवीतराग
१. सू० ११०-१२३.
२. सू० १२४ - १३४.
३. सू० १३५ - १४०.
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